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________________ विकास सहायक–सहयोगी है । इससे आध्यात्मिक विकास काफी ऊँचा एवं अच्छा होता है। क्षपक श्रेणी हो या उपशम श्रेणी- श्रेणी का आधार ध्यान और वैसा ध्यान श्रेणीपर अग्रसर करता है । ८ वे गुणस्थान पर शुक्लध्यान की प्रधानता रहती है अतः यहाँ शुक्लध्यान की संक्षिप्त रूपरेखा दर्शायी है । क्यों कि ७ वे गुणस्थान तक धर्मध्यान की प्रधानता थी। और पूर्व में धर्मध्यान का सही अभ्यास हो तो ही आगे शुक्लध्यान संभव हो सकता है । ध्यान तो उपशमश्रेणीवाले का भी शुक्लध्यान ही है, गुणस्थान भी क्रमशः ८ से ९, नौवे से १० वाँ, तथा १० वे से ११ वाँ है । जबकि क्षपकश्रेणीवाला ११ वा गुणस्थान छोड कर सीधा १२ वे गुणस्थान पर जाता है । ८,९ तथा १० ये तीनों गुणस्थान दोनों श्रेणीवालों के लिए समानरूप से एक ही हैं । सिर्फ अन्तर इतना ही है कि.. उपशम. श्रेणीवाला कर्मप्रकृतियों का जडमूल से सर्वथा क्षय-(नाश) करने के बजाय उपशमन-शान्त कर देता है । दबा देता है । जबकि क्षपकश्रेणीवाला जडमूल से सर्वथा क्षय (नाश) करके ही आगे बढ़ता है। कर्म तो आखिर कर्म ही है। इसका विश्वास कैसे किया जा सकता है ? जैसे शरीर में कोई भी रोगबीमारी या शल्य हो वह चाहे छोटा ही क्यों न हो? फिर भी उसका विश्वास कभी नहीं किया जा सकता । जलते अंगारे राख से आच्छन्न होते हैं । उनका विश्वास जैसे नहीं किया जा सकता, वैसे ही कर्मप्रकृतियों का भी विश्वास करना बडी भारी भूल होगी । इनका तो सर्वथा संपूर्ण जडमूल से क्षय-नाश करना ही हितकारी है। शुक्लध्यान से विशुद्धि इति त्रयात्मकं ध्यानं, प्रथमं शुक्लमीरितं। प्राप्नोत्यतः परां शुद्धि सिद्धिः श्री सौख्यवर्णिकाम् ।।६५॥ यद्यपि प्रतिपात्येतदुक्तं ध्यानं प्रजायते। तथाप्यतिविशुद्धत्वादूर्ध्वस्थानं समीहते ॥६६॥ ___ यह जो शुक्लध्यान के ३ भेद (पहले के ३ भेद) दर्शाये हैं उनका ध्यान करता हुआ योगी महात्मा सिद्धि सुख, मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करने हेतु परम विशुद्धि को प्राप्त होता है । अतः यहाँ यह नियम उपयोगी बनता है कि- “प्रथम शुद्धि फिर सिद्धि" । बिना शुद्धि के सिद्धि संभव ही नहीं है । शुद्धि कर्मक्षयजन्य है, जबकि सिद्धि आत्मा की है। आत्मा की कर्मरहित मुक्तावस्था ही सिद्धावस्था है। ऐसे इस प्रकार के शुक्लध्यान से जीव क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११४७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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