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पर । तथा काय योग का मनोयोग का आलंबन लेता है । इस तरह अर्थ, व्यंजन और योगों । का परिवर्तन करता है। २) एकत्व-वितर्क-अविचार
___ एकत्व अर्थात् अभेद । शुक्ल ध्यान के इस भेद में द्रव्य–पर्याय का अभेद रूप से चिन्तन होता है । वितर्क और विचार का अर्थ प्रथम भेद के जैसा ही है । विचार का अभाव अविचार है । इस भेद में विचार का अभाव होता है । जिस ध्यान में पूर्वगत श्रुत के आधार पर आत्मा के परमाणु आदि किसी एक द्रव्य के आश्रय से उत्पाद आदि किसी एक पर्याय का अभेद प्रधान चिन्तन होता है। अर्थ, व्यंजन और योग के परिवर्तन का अभाव होता है। उसे एकत्व वितर्क अविचार ध्यान कहते हैं। जैसे दीपक की ज्योत हवा के अभाव . में स्थिर रहती है ठीक वैसे ही विचार रहित होने से यह ध्यान निष्पकंप स्थिर रहता है। ३) सूक्ष्म क्रिया अप्रतिपाती___इसके नाम में सूक्ष्मक्रिया और अप्रतिपाती ये दो शब्द हैं । अर्थात् जिसमें क्रिया अत्यन्त अल्प मात्र (सूक्ष्म) है और पतन से रहित को अप्रतिपत्ति कहते हैं। इसके ध्याता में एकमात्र श्वासोच्छ्वास की ही क्रिया शेष रही है। तथा ध्याता के आत्मपरिणामविशेष का पतन कभी संभव ही नहीं है ऐसा ध्याता सूक्ष्मक्रियाऽप्रतिपाति ध्यानवाला कहलाता है। अपना आयुष्य मात्र १ अन्तर्मुहूर्त ही अवशिष्ट रहता है तब केवली योगनिरोध की क्रिया करते हैं । उसमें वचन और मनोयोग दोनों योगों का तो सर्वथा निरोध ही हो जाता है। तब सिर्फ श्वासोच्छ्वासरूप काययोग ही अवशिष्ट रहता है । तब यह ध्यान होता है। .योग निरोध का कार्य १३ वे सयोगी केवली गुणस्थान के अन्त में (अन्तिम अन्तर्मुहूर्त में ही) होता है । अतः यह ध्यान भी १३ वे गुणस्थान के अन्त में ही होता है। ४) व्युपरत क्रियानिवृत्ति
तत्त्वार्थकार ने नामकरण में कुछ पर्यायवाची या समानार्थक दूसरे शब्दों का प्रयोग किया है । अनिवृत्ति के स्थान पर अप्रतिपाती शब्द रखा है । परन्तु यहाँ अर्थभेद नहीं है। इस चौथे भेद में भी व्युपरतक्रिय (समुच्छिन्नक्रिय) और अनिवृत्ति ये दो शब्द प्रयुक्त हैं। जिसमें निवृत्ति या पतन संभव ही नहीं है, उसे अनिवृत्ति कहते हैं । जिसमें वचन और काय के साथ मनोयोग की भी निवृत्ति हो जाती है । अतः तीनों योगों का संपूर्ण योग निरोध हो जाता है । योग निरोध के पश्चात् तो किसी भी प्रकार की क्रिया का होना संभव ही नहीं है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा