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________________ ११ वे गुणस्थान पर न जाता हुआ.. सीधा १२ वे क्षीण मोह गुणस्थान पर जाता है। क्षपक श्रेणी का साधक... किसी भी कर्मप्रकृति का अंश मात्र भी दबा हुआ अवशिष्ट नहीं रखता है... अतः उन प्रकृतियों के उदय में आने की कोई संभावना ही नहीं रहती है । न तो वे प्रकृतियाँ उदय में आए और न ही आत्मा का पतन हो । धडाधड कर्मप्रकृतियों का जडमूल से क्षय-(नाश) करके ही आगे बढता है । इसलिए पतन का प्रश्न उपस्थित होता ही नहीं है । मात्र मोहनीय कर्म की ही प्रकृतियों का नहीं आगे बढ़ते बढते नाम कर्म और फिर ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय तथा अन्तरायादि सभी घाती कर्मों का क्षय करके केवलज्ञान पाता है । उपशमवाले के लिए तो केवलज्ञान पाने का कोई प्रश्न खडा ही नहीं होता है। क्योंकि केवलज्ञान की प्राप्ति तो १३ वे गुणस्थान पर होती है। और उपशम श्रेणीवाला तो ११ वे से अंशमात्र भी आगे बढ ही नहीं सकता है । इसलिए सवाल ही नहीं उठता है । इस तरह क्षपक श्रेणी का आरोहण स्त्री हो या पुरुष कोई भी कर सकता है । श्रेणी आत्मा करती है, गुणस्थान आत्मा के हैं, नहीं कि शरीर के । शरीर जड है । शरीर का आकार विशेष स्त्री का है या पुरुष का । आत्मा स्त्री भी नहीं होती और पुरुष भी नहीं होती । अतः स्त्री-पुरुष का कोई भेद ही नहीं रहता है। शुक्लध्यान का स्वरूप ध्यान का स्वरूप पीछे काफी वर्णन कर आए हैं। ४ प्रकार के अशुभ आर्तध्यान, तथा ४ प्रकार के रौद्र ध्यान । इस तरह ८ प्रकार तो अशुभ (खराब) ध्यान के भेद हुए। शुभ ध्यान के भी ८ प्रकार हैं। इनमें ४ धर्मध्यान के प्रकारों का वर्णन पीछे कर चुके हैं। अब क्रम प्राप्त यहाँ शुक्लध्यान का वर्णन करना है । ध्यान की धारा में आगे चढता हुआ ध्याता शुक्लध्यान में आगे बढ़ता है। ध्यान और गुणस्थान दोनों का गाढ संबंध है । ध्यान की धारा के अध्यवसायों के आधार पर गुणस्थानों में परिवर्तन होता है । और गणस्थानों के आधार पर ध्यान की धारा में भी परिवर्तन होता है । अतः दोनों अन्योन्य आधाराधेय भाव से संबंधित हैं । ७ वे गुणस्थान से आगे के गुणस्थान सभी ध्यानाश्रित ही अधिक हैं । क्योंकि अब आगे क्रिया की प्रधानता नहीं है । ध्यानानल अर्थात् ध्यान की अग्नि में जितनी तीव्रता ज्यादा होगी उतनी ही निर्जरा की मात्रा भी काफी ज्यादा बढती रहेगी। और जितनी निर्जरा ज्यादा होगी ... उतना जल्दी एक-एक गुणस्थान भी आगे-आगे बढता ही रहेगा। अब आगे के गुणस्थानों का मुख्य आधार ध्यान में भी सर्वश्रेष्ठ शुक्ल ध्यान पर है। ८ प्रकार के शुभ क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११४१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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