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का क्षय करने की शुरुआत तो पहले ही की थी परन्तु अभी तक उनका क्षय हुआ नहीं था । बीच में ही पूर्वोक्त १६ प्रकृतियों का क्षय कर लेता है । उसके अन्तर्मुहूर्त पश्चात् . कषायाष्टक का क्षय करता है । इस तरह ८ कषाय + १६ प्रकृतियों का क्षय करने के पश्चात् अन्तर्मुहूर्त काल में ही ... नौं कषाय ( हास्यादि ६. + ३ वेद ९) संज्वलन कषाय चतुष्क इन ९ + ४ = १३ प्रकृतियों का अंतरकरण करता है । उसके पश्चात् द्वितीयस्थिति में रहे हुए ... नपुं० वेद के दलिकों का उद्वर्तना संक्रमण से इस तरह क्षय करता है कि ... अन्तर्मुहूर्त काल में पल्योंपम के असंख्यातवे भाग प्रमाण ही स्थिति शेष रहती है । उसके पश्चात् गुणसंक्रम के द्वारा बद्ध्यमान प्रकृति में संक्रमण करते हुए अंतर्मुहूर्त काल में संपूर्ण क्षय होती है ।
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इस तरह नपुं० वेद का सत्ता में से संपूर्ण क्षय करके इसी क्रम से स्त्रीवेद को अंतर्मुहूर्त · करता है । उसके बाद ६ नोकषाय का एकसाथ ही क्षय करने का प्रारम्भ करता है । इसके साथ ही सत्तागत नोकषाय के दलिकों को पुंवेद में संक्रमण न करते हुए संज्वलन क्रोध में ही संक्रमित करता है । ६ नोकषायों का भी पूर्वोक्त विधि से क्षय करते हुए... पुं. वेद का बंध-उदय-उदीरणा का बंधविच्छेद होता है। इसीका उदय विच्छेद होने के पश्चात् आत्मा अवेदी—वेदरहित बन जाती है । यह सब पुं. वेद के उदय के साथ श्रेणी का प्रारंभ करनेवाले के विषय में समझना चाहिए। यदि नपुं० वेद के उदय साथ श्रेणी का प्रारंभ करे तो पहले स्त्री० नपुं० वेद को एक साथ क्षय करता है । फिर पुंवेद का ... । बोद में हास्यादि षट्क का क्षय करता है। इस तरह स्त्रीवेद के उदय के साथ श्रेणी करनेवाले के विषय में भी समझना चाहिए। वह प्रथम नपुं० वेद का बाद में नपुं० वेद का क्षय करता है । साथ ही पुंवेद का भी विच्छेद होता है । बाद में हास्यादि का । और बाद में क्रोधादि क्षय करता है ।
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श्रेणी के श्रीगणेश ८ वे अपूर्वकरण गुणस्थान से करके मुख्य कर्मक्षय करने का काम तो नौंवे अनिवृत्ति गुणस्थान पर ही होता है । १० वे गुणस्थान पर तो सिर्फ सूक्ष्म लोभ को क्षय करने का ही काम रहता है । १० वे गुणस्थान के चरम समय पर्यन्त संज्व० लोभ के दलिकों को उदय से भुगतकर सर्वथा नष्ट करता है । और चरम समय ५ ज्ञानावरण, ४ दर्शना०, यशकीर्ति, उच्चगोत्र अंतराय कर्म - ५, इन १६ कर्मप्रकृतियों का बंध विच्छेद होता है । तथा मोहनीय कर्म के उदय का और उसकी सत्ता का सर्वथा विच्छेद होता है । उसके बाद के समय में आत्मा १२ वे क्षीणमोह गुणस्थान पर आरूढ होती है । क्योंकि क्षपक श्रेणीवाला साधक ११ वे गुणस्थान पर नहीं जाता है ।
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क्षपक श्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
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