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________________ ४ से ७ वे गुणस्थान में किसी भी गुणस्थानवर्ती साधक यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणादि तीनों करणों से युक्त प्रथम तो अनन्तानुबंधी कषायों का और बाद में क्रमशः मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व मोह० का सर्वथा जडमूल से क्षय करता है । क्षपक श्रेणी का प्रारंभ करनेवाले जीव २ प्रकार के होते हैं । एक तो श्रेणिकादि राजा के जैसे बद्धायुवाले, (पूर्व में आयुष्यकर्म नया बांधे हुए) और दूसरे अबद्धायुवाले । १) जिसने पहले आयुष्य कर्म का निकाचित बंध कर लिया हो अर्थात् बद्धायु हो और वह (वैसा) यदि क्षपक श्रेणी का आरम्भ करे तो अनन्तानुबंधी ४ कषायों का क्षय करके यदि मृत्यु की संभावना होने से वहीं रुका रहे तो कभी मिथ्यात्व मोह कर्म का उदय होने से पुनः अनन्तानुबंधी कर्म उपार्जन करता है । क्योंकि इसके बीजभूत मिथ्यात्व मोहनीय का अभी भी जडमूल से क्षय नहीं किया है अतः । परन्तु अनन्तानुबंधी का क्षय करके चढते हुए परिणामों के आधार पर जो बद्धायु आत्मा मिथ्यात्व मोह० का भी क्षय कर ले, उसका बीज भी क्षय हो जाने से अनन्तानुबंधी का पुनः बंध होनेवाला ही नहीं है । इस तरह जो अनन्तानुबंधी का क्षय करके अथवा दर्शनसप्तक का क्षय करके अपतित परिणाम के आधार पर मृत्यु पाए तो अवश्य ही वैमानिक देव बनता है । और पतित परिणाम से तो चारों गति में जाता है । बद्धायु आत्मा दर्शनसप्तक का क्षय कर लेने के पश्चात् जो मृत्यु न पाए तो भी वह चारित्र मोहनीय कर्म का क्षय करने में प्रवृत्त नहीं होता | - जिसने आगामी जन्म का आयुष्य बांधा ही नहीं है वह अबद्धायुषी जीव यदि क्षपक श्रेणी का आरम्भ करता है तो वह दर्शनसप्तक का क्षय करके परिणाम से पतन न होते हुए ... चारित्रमो० कर्म का क्षय करने के लिए उद्यमवंत होता है । अपूर्वादि तीनों करण करता है । जिसमें अप्रमत्त गुणस्थान ७ वे पर यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण, ८ वे गुणस्थान पर अपूर्वकरण, और ९ वे अनिवृत्तिकरण गुणस्थान पर अनिवृत्तिकरण इस तरह तीन गुणस्थानों पर तीनों प्रकार के करण करता है I 1 ८ वे गुणस्थान पर स्थितिघातादि द्वारा अप्र० + प्रत्या० इन आठों कषायों का इस तरह क्षय करता है कि ... ९ वे गुणस्थान के प्रथम समय में पल्योपम के असंख्यातवे भाग प्रमाण ही स्थिति रहती है । अनिवृत्तिकरण के संख्यात भाग बीतने के पश्चात् तब (स्त्यानर्द्धित्रिक आदि १६ प्रकृतियों को उछलना संक्रमद्वारा क्षय करता-करता पल्योपम के असंख्यातवे भाग प्रमाण स्थिति होती है । बाद में प्रति समय गुणसंक्रम द्वारा बद्धमान प्रकृति में संक्रमण करते करते... संपूर्ण क्षय होता है । यद्यपि अप्र० + प्र०, कषायाष्टक ११३८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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