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योगी । उत्तरोत्तर बढते हुए और चढते हुए अध्यवसायों से आत्मा दर्शनमोहनीय कर्म का पहले और बाद में चारित्रमोहनीय कर्म का सर्वथा जडमूल से क्षय करता है । जिससे २ भाव प्रगट होते हैं- १) क्षायिक भाव का सम्यक्त्व, और २) क्षायिकभाव का चारित्र ।
औपशमिक-क्षायिकौ भावौ मिश्रश्च जीवस्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिकौ च ।। २/१. तत्त्वार्थसूत्र में १) औपशमिक २) क्षायिक, ३) मिश्र अर्थात् क्षायोपशमिक, ४)
औदयिक और ५) पारिणामिक इस प्रकार के ५ भाव दर्शाए हैं। ये पाँचों भाव जीव के स्वतत्त्व है, स्वरूप है अर्थात् स्वभाव है । भाव शब्द यहाँ गुण या धर्म का वाचक है । अब तक जो कुछ जीव ने पाया था वह औदयिक, औपशमिक या ज्यादा से ज्यादा क्षायोपशमिक भाव का ही पाया था। लेकिन अब क्षपक श्रेणीगत जीव कर्मक्षय करता हुआ आगे बढ़ रहा है। अतः क्षायिक भाव के ही गुण पाएगा। सम्यक्त्व भी सर्वथा क्षायिक की कक्षा का और चारित्र भी संपूर्ण क्षायिक की कक्षा का । अतः क्षपक की कक्षा के जो भी भाव प्राप्त होंगे वे अप्रतिपाति होंगे। वापिस कभी भी न जानेवाले। अर्थात् एक बार क्षायिक की कक्षा के सम्यक्त्व, चारित्रादि प्राप्त हो जाने पर अनन्त काल तक भी नष्ट नहीं होते । पुनः चले नहीं जाते । सदा काल साथ ही रहते हैं। मोक्ष में भी सम्यक्त्व
और चारित्र क्षायिक भाव के अनन्त काल तक साथ ही रहते हैं। क्योंकि ये सर्वथा संपूर्ण कर्मक्षयजन्य भाव है । जडमूल से उस कर्म के सर्वथा क्षय हो जाने से प्रगट हुए गुण हैं। अतः ये पुनः कभी भी कर्मावृत्त नहीं होते हैं । नियम ही है कि... एक बार जो भी क्षायिक भाव से अर्थात् सर्वथा कर्म के संपूर्ण क्षय से प्रगट हो जाय वह पुनः नष्ट नहीं होता। क्योंकि वह क्षपक श्रेणी का साधक वैसे कर्म पुनः कभी बांधता नहीं है । जी हाँ, कर्मों के उपशम से, औपशमिक भाव से जो भाव या गुणादि प्रगट होंगे सदा स्थायी नहीं होंगे। विनश्वर हैं । परिवर्तनशील हैं । जबकि क्षायिक भाववाले के लिए कभी भी नष्टता का प्रश्न खडा ही नहीं होता है। क्षपक श्रेणीयोग्य· श्रेणी मात्र मनुष्य ही कर सकता है । अन्य कोई देवादि भी नहीं । मनुष्यों में ८ वर्ष से अधिक की उम्र का ही होना चाहिए । तथा १ ला वज्रऋषभनाराच संघयण तो होना ही चाहिए । शुद्धध्यानयुक्त मनवाला तो होना ही चाहिए । शुक्लध्यान का साधक ध्यान योगी हो। ४ थे से ७ वे गुणस्थान में प्रवर्तमान हो । क्षायोपशम सम्यक्त्वधारी ही आगे बढ सकता है । क्षपकश्रेणी का आरंभक जो ७ वे अप्रमत्त गुणस्थानवर्ती साधक हो और यदि पूर्वधर हो तो शुक्लध्यानयुक्त होता है और यदि पूर्वधर न हो तो धर्मध्यान युक्त होगा।
क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
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