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________________ उवसमेणि चउक्कं, जायइ जीवस्स आभवं नूणं। . साहुण दो एग भवे, खवगस्सेणी पुणो एगो॥१॥ (भाव उपरोक्त स्पष्ट है)। क्षपक श्रेणी का तो सवाल ही खडा नहीं होता है । वह तो अनन्त संसार काल में मात्र एक ही बार होगी। क्योंकि क्षपकश्रेणी का अंत तो सीधे मोक्ष प्राप्ति में ही होता है । अतः दूसरी बार पुनः करने का तो प्रश्न ही शेष नहीं बचता। इस तरह श्रेणी के विषय में उपशमश्रेणी का वर्णन किया है । आगे क्षपक श्रेणी की विचारणा करेंगे। क्षपकश्रेणी अतो वक्ष्ये समासेन, क्षपकश्रेणीलक्षणम्। योगी कर्मक्षयं कर्तुं यामारुह्य प्रवर्तते ॥४७॥ । गुणस्थान क्रमारोह ग्रन्थकार अब क्षपकश्रेणी का विषय प्रारंभ करते हैं । क्षपक शब्द का सीधा अर्थ ही कर्म का क्षय करने से हैं। 'क' अन्तिम अक्षर करने के अर्थ में प्रयुक्त है। अतः करोति इति कर्ता, जो करता है वह कर्ता । करनेवाला-कर्ता-अर्थवाचक "क" अक्षर शब्द में साथ जुडा है । क्षय करनेवाला- “क्षपक" । किसका क्षय? उपार्जित कर्म का क्षय । “अरिहंताणं"- में अरि + हंत = अरिहंत शब्द में 'अरि' शब्द आत्मशत्रु अर्थ में कर्मवाचक है। हन्त हन् धातु हनन करने के अर्थ में है। उससे बना हुआ शब्द "हन्त” है । अर्थात् हनन करनेवाला । हनन करना अर्थात् क्षय करना । अरि आत्मशत्रु रूप कर्म अरि का हनन अर्थात् क्षय करना । ऐसी प्रक्रिया करनेवाला कर्ता- “अरिहन्त" है। अतः क्षपक कहो या अरिहन्त कहो दोनों ही समानार्थक शब्द हैं । अनादि काल से संचित ये कर्म ही आत्मा के आन्तर रिपु-अरि-या शत्रु हैं । बस, एकमात्र इस कर्म ने ही आत्मा की उन्नति–प्रगति एवं मोक्ष प्राप्ति को रोक रखा है । जैसा चेतन स्वरूप आत्मा का है आज दिन तक उसे कभी भी कर्म ने प्रगट होने ही नहीं दिया । अतः आत्मा बिचारी लाचार बनकर दबी ही रही । अपने गुणों को पूर्ण स्वरूप में प्रगट कर, पूर्ण रूप में अपने आप को कभी देख ही नहीं सकी। इतना ही नहीं कर्मों ने आत्मा का गला घोंट कर, कुंठित करके दबा रखा और अपने कर्मों का विकृत स्वरूप उस पर हावी कर दिया। बस, वही जगत के समक्ष दिखाकर आत्मा वैसी है, ऐसा भ्रान्त स्वरूप अनन्त काल तक जगत् के सामने दिखाया । मानों बहुरूपी के नाटक ले जैसा ही हो गया हो। ११३४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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