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________________ इस तरह कर्म जैसे पर पदार्थ, स्व से सर्वथा भिन्न, विपरीत स्वरूपवाले, और वह भी आत्मा के शत्रुरूप स्वरूप को अज्ञानतावश कभी समझ ही न पाया और अब आत्मज्ञान की जागृति, आध्यात्मिकता के शिखर पर चढते हुए आत्मवेत्ता को गुणस्थानों पर आगे बढ़ते-बढते क्रमशः आत्मा के विकास को साधते - साधते ... ८ वे अपूर्वकरण गुणस्थान पर आने के बाद सर्वप्रथम इन कर्मों का सदंतर जड़मूल से क्षय-नाश करने का निर्णयात्मक विचार आता है । वह साधक किसी भी हालत में कर्माणु के अंश मात्र को भी अवशिष्ट रखना ही नहीं चाहता है । जडमूल से संपूर्ण क्षय करके ही रहूँगा इसी संकल्प के साथ जिस श्रेणी के श्रीगणेश करता है उसे क्षपकश्रेणी कहते हैं। किन किन कर्मप्रकृतियों का क्षय करता है वह बताते हैं अनिबद्धायुषः प्रान्त्यदेहिनो लघुकर्मणः । असंयत-गुणस्थाने नरकायुः क्षयं व्रजेत् ॥ ४८ ॥ तिर्यगायुः क्षयं याति गुणस्थाने तु पंचमे । सप्तमे त्रिदशायुश्च दृग्मोहस्यापि सप्तकम् ।। ४९ ।। . दशैता: प्रकृतीः साधुः क्षयं नीत्वा विशुद्धधीः । धर्मध्याने कृताभ्यासः प्राप्नोति स्थानमष्टमम् ॥ ५० ॥ चरम शरीरी अर्थात् अन्तिम बार ही इस शरीर को धारण करनेवाला जिसने अभी तक आयुष्यकर्म का बन्ध नहीं किया है ऐसा क्षपक महात्मा असंयत- अविरत सम्यक्त्व नामक चौथे गुणस्थान में नरक गति संबंधि आयुष्य के बन्ध को सत्ता में से नष्ट कर देता है, ५ वे देशविरत गुणस्थान में जाकर तिर्यंच गति संबंधि आयुष्य के बंध योग्य कर्मदलिकों को मूल से क्षय करके फिर आगे बढता है । फिर साधु पद के गुणस्थान में प्रवेश करके ७ वे गुणस्थान अप्रमत्त संयत बनता है । वहाँ देवगति संबंधि आयुष्य कर्म योग्य कर्मदलिकों को सर्वथा नष्ट कर देता है । फिर ४ अनन्तानुबंधी, ३ मोहनीय इस दृग्मोहसप्तक का क्षय करता है । इस प्रकार १५८ कर्मप्रकृतियों में से पूर्वोक्त १० कर्मप्रकृतियों को नष्ट करके क्षपक योगी १४८ कर्मप्रकृति की सत्तावाले ८ वे गुणस्थान पर आता है । इस ८ वे गुणस्थान पर क्षपक महात्मा ४, ५, ६, ७, वे गुणस्थान से क्रमशः उत्कृष्ट - उत्कृष्ट धर्म ध्यान का अभ्यास करता हुआ ८ वे अपूर्वकरण गुणस्थान पर पहुँचता है । पूर्व अभ्यास से कैसी प्रगति होती है। इस तरह प्रगति का आधार पूर्व अभ्यास है अभ्यास का जीवन के अनेक क्षेत्रों में काफी ज्यादा महत्व है। कहते हैं कि I । 1 क्षपक श्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११३५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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