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श्रुतकेवली, १४ पूर्वधर महापुरुष, आहारक लब्धिधारी महात्मा, तथा ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी जैसे ऊपर की कक्षा पर आरूढ हुए महात्मा पुरुष भी मोहजन्य प्रमादवश होकर चार गतिरूप इस संसारचक्र में अनन्त जन्म तक भी परिभम्रण करते रहते हैं। इस तरह प्रमाद जिसमें मात्र निद्रा ही नहीं अपितु निद्रा, विकथा, कषाय, मद, विषय आदि के सभी प्रकार के प्रमादों की गणना है । ऐसे प्रमाद के कारण कितने भारी कर्मों का बंध होता है? प्रमाद भी भयंकर कक्षा का बंध हेतु है । पीछे बंध हेतुओं का विस्तृत वर्णन किया ही है। (कृपया पुनः पढिए।) ऐसे भारी कर्मों का बंध होने के कारण संसार चक्र की चारों गतियों में जन्म-मरण धारण करते करते परिभ्रमण करना ही पड़ता है। उपशम श्रेणी से पतित की गति
श्रेण्यारूढः कृते काले, अहमिन्द्रेष्वेव गच्छति।
पुष्टायुस्तूपशान्तान्तं नयेच्चारित्रमोहनम् ।। ४१ ॥ यदि श्रेणी पर आरूढ हुआ मुनि अल्पायुवाला हो और श्रेणी में रहा हुआ ही यदि मृत्यु पाकर काले कर जाय तो १४ राजलोक के समस्त लोक के सर्वोपरि उपरीस्थान पर देवलोक (ऊर्ध्वलोक) में स्थित सर्वार्थसिद्ध विमान में देवता के रूप में उत्पन्न होता है। देव गति और जाति में यह सर्वोच्च कक्षा का देव कहलाता है । संसार में अनन्त जीवों में आयुष्य की तुलना में ३३ सागरोपम का सर्वोच्च आयुष्य मिलता है । ये एकावतारी ही होते हैं । अर्थात् वहाँ से उतरकर १ भव मनुष्य का करके शीघ्र मोक्ष में जानेवाले मोक्षगामी होते हैं । इस विषय में शास्त्रीय आधार इस प्रकार है
सेवार्तेन तु गम्यते चतुरो, यावत्कल्पान् कीलिकादिषु।
चतुर्षु द्वि द्वि कल्पवृद्धि प्रथमेन यावत्सिद्धिरपि ॥१॥ अर्थात् अंतिम संहननवाला प्राणी ४ देवलोक तक जा सकता है। कीलिकादि संहननवाले जीव प्रथम देवलोक से क्रमशः २-२ देवलोकों की क्रम से वृद्धि समझ लेनी चाहिए । प्रथम वज्रऋषभनाराच संहननवाले मनुष्य सर्वार्थसिद्ध विमान तथा मोक्ष में भी जा सकते हैं । (क्षपक श्रेणीक) जो७ लव अधिक आयुष्यवाला मुनि मोक्षगमन योग्य होता है वही सर्वार्थसिद्ध विमान में जा सकता है। लवसप्तम आयुवाले देवता एकावतारी सर्वार्थसिद्धविमानवासी होते हैं । सप्तलवशेष आयुवाला योगी श्रेणीगत ११ वे गुणस्थान से उपशमश्रेणी का भेदन करके नीचे ७ वे गुणस्थान पर आता है। वहाँ से पुनः ८ वे अपूर्वकरण गुणस्थान के आद्यांश से पुनः क्षपकक्षेणी का आरंभ कर सकता है । और हो
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आध्यात्मिक विकास यात्रा