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________________ १) काल- ११ वे उपशान्त मोहनीय गुणस्थान का समय अन्तर्मुहूर्त का ही होता है । यदि इतने लम्बे काल तक यहाँ पर टिक जाय तो अंतर्मुहूर्त का काल समाप्त हो जाने पर... उस साधक का पतन शान्त प्रकृतियों के उदय से होना निश्चित ही है । अतः जिस क्रम से चढा था शायद उसी क्रम से भी पतन हो या सीधे ही ४ थे गुणस्थान तक आ सकता है, या ८ वे पर भी आकर रुक सकता है । या फिर... १ ले मिथ्यात्व गुणस्थान तक भी पतन होना संभव है परन्तु जो चरम शरीरी (तद्भवकेवली) है तो वह ७ वे अप्रमत्त गुणस्थान तक आकर रुक जाता है। क्योंकि ७ वे गुणस्थान से वे शमन करने की भूल को समझकर अब क्षय करने की प्रक्रिया से क्षपक श्रेणी का प्रारंभ कर देते हैं । परन्तु यह भी नियम है कि जिसने सिर्फ एक ही बार उपशम श्रेणी का शुभारंभ किया हो वे जीव ही उस जन्म में क्षपक श्रेणी कर सकता है। हाँ, यदि किसी ने २ बार यदि उपशम श्रेणी कर ली हो तो वैसे साधक जीव उस जन्म में क्षपक श्रेणी का प्रारंभ नहीं कर सकते हैं । शास्त्रकार फरमाते हैं कि.. जीवो हु एग जम्मंमि, इक्कसिं उवसामगो। खयंपि कुज्जा नो कुज्जा, दो वारे उवसामगो॥ एक भव (जन्म) में जिस जीव ने एक बार उपशम श्रेणी करने का कार्य कर लिया हो, वह जीव उसी जन्म में क्षपक श्रेणी को कर सकता है । परन्तु जिस जीव ने एक जन्म में २ बार उपशम श्रेणी की हो वह पुनः उसी भव में क्षपक श्रेणी नहीं कर सकता। ___ऊर्ध्वगमन की प्रक्रिया में (ऊपर चढने की प्रक्रिया में) उपशम श्रेणीगत योगी अपूर्वकरण गुणस्थान ८.वे से क्रमशः एक एक गुणस्थान जिस प्रकार आगे बढा है। अर्थात् ८ वे से नौंवे, नौंवे से १० वे, फिर १० वे से ११ वे उपशान्त मोह गुणस्थानं पर आता है। बस, इन ४ गुणस्थानों में ही शामक को खेलना है । इसके बाद आगे जाने का तो सवाल ही नहीं है । ११ वाँ गुणस्थान ही अन्तिम है । पतन की प्रक्रिया अध्यवसायों की अशुद्धि के आधार पर निर्भर करती है । क्रमशः एक एक गुणस्थान गिरते-गिरते १ ले मिथ्यात्व गुणस्थान तक भी जा गिरता है। उपशम श्रेणीवाला जीव मोहजनित प्रमादरूप कालुष्यता में गिरकर संसार चक्र में परिभ्रमण करता रहता है । शास्त्रकार यहाँ तक कहते हैं कि सुअ केवली आहारग, अज्जुमई उवसंत गाविहुपमाया। हिडंति भवमणंतं तयणंतरमेव चउगइआ॥१॥ क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११३१
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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