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है। तो क्या ऐसी स्थिति में प्यासे इन्सान को पीना चाहिए? क्या समझदार व्यक्ति पीयेगा? हाँ, बिचारा जानवर जरूर पी सकता है। दूसरे में कचरेवाला मटमैला मलीन पानी १० बार छानकर-उबाल-उबालकर बाष्पीभवन की प्रक्रिया से ऊपर उठी भाप को पुनः शीत कर जलधारा के रूप में स्वीकार करने से वह पानी सर्वथा मलीनतारहित निर्मल स्वच्छ-साफ सुथरा रहेगा। वैसा ही पानी कोई प्यासा पीये तो जरूर.. आरोग्यकर्ता बन सकता है। प्यासे को तो पानी पीने से प्रयोजन है लेकिन इन दोनों प्रक्रिया में से कौनसी ग्राह्य है ? या ग्रहण करने योग्य है?
'ठीक इसी तरह की ये दोनों श्रेणियाँ हैं । उपशम श्रेणी स्थिर हुए कचरेवाले गंदे मैले पानी में जिसका कचरा या मैलापन नीचे बैठ जाय और ऊपर-ऊपर साफ स्वच्छ पानी रहे वैसी है। पानी की स्थिरता के स्थान पर...शुक्लध्यानजन्य स्थिरता है। और नीचे बैठे हुए कचरे के स्थान पर सत्ता में पड़ी हुई-दबी हुई शान्त बनी हुई कर्मप्रकृतियाँ हैं। और ऊपर ऊपर पानी की जो स्वच्छता दिखाई दे रही है वह कर्मप्रकृतियों की शान्ति है । प्यासा जैसे पानी पीता जाएगा कि इतने में ही पानी हिलने के कारण कचरा, रजकण भी हिलकर पुनः मलीनता ऊपर-ऊपर आएगी। पुनः मैलापन छा जाएगा। फिर उसे देखते ही मन खट्टा हो जाएगा।
ठीक उसी तरह उपशामक जीव... कर्मप्रकृतियों के मैल को नीचे बैठने देता है। ऊपर दिखते स्वच्छ पानी की तरह अपने शुक्ल ध्यान के आद्यांश में स्थिरता समझकर कर्मप्रकृतियों को पानी के कचरे की तरह शान्त बैठे मानकर आगे बढ़ जाता है । ध्यान की धारा में तीव्रता आने के आधार पर... आगे-आगे के गुणस्थानों के सोपान तो चढता जाता है । लेकिन कचरा-मैल हिलते ही जैसे पानी पुनः मलीन बनता है, ठीक उस शल्मक की आत्मा भी उपशमन की प्रक्रिया में ११ वे गुणस्थान तक पहुँच जाती है । ११ वाँ गुणस्थान उपशान्त मोह का, यह उपशमन की प्रक्रिया का अन्तिम स्टेशन है। उपशम श्रेणीवाले के लिए ही यह विशेष कक्षा का विश्राम स्थान है । बस, इससे आगे तो जा ही नहीं सकता है।
क्योंकि कहीं न कहीं दबी हुई, शमी हुई मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ पुनः उछल-कूदकर जोर करती है । बस, इसमें तो साधक विचलित हो जाता है । साधक की साधना-मेहनत पर... पानी फिर जाता है । अन्त में ११ वे उपशान्त मोह गुणस्थान पर आने के पश्चात् या तो कालक्षय या आयुक्षय से भी उसे पुनः लौटना ही पडता है । ये दो कारण प्रबल हैं।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा