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________________ 1 क्षपकश्रेणी का प्रारंभ इसी गुणस्थान से करता है । श्रेणी चाहे दोनों में से कोई भी हो लेकिन गुणस्थान तो दोनों के लिए यही ... एक ही ८ वाँ रहेगा । तथा ८ से आगे के ९, १०, ११ सभी गुणस्थान श्रेणी के गुणस्थान कहलाते हैं । जिस श्रेणी का प्रारंभ करता है साधक उसी श्रेणी का परिवर्तन - या बदलाव नहीं होता है । अर्थात् उपशम श्रेणीवाला बदलकर क्षपकश्रेणी नहीं करता है और क्षपक श्रेणीवाला अपनी श्रेणी बदलकर उपशम की नहीं करता है । इस तरह बीच में या अन्त में श्रेणी परिवर्तन संभव ही नहीं है। एक बार आरम्भ समय जिसने जिस श्रेणी का प्रारंभ करना था कर लिया। बस, फिर वह उसी श्रेणी पर रहता है । उपशम श्रेणीवाले साधक का अन्त ११ वे गुणस्थान पर होता है । बस, फिर उल्टे क्रम में पतन होता है। गिरता - गिरता - गिरता ही जाता है । उपशम श्रेणीवाले का पतन निश्चित ही है । ठीक इससे विपरीत वृत्तिवाला क्षपक श्रेणी का साधक चढते - चढते आगे चढता ही जाता है । चरम साध्य तक पहुँचता है । 1 उपशम श्रेणी का प्रारंभ वैसे उपशम श्रेणी का आरंभक जीव ७ वें अप्रमत्त संयत गुणस्थान का शमक साधक है । अतः ८ वें गुणस्थान के आद्यांश - प्रथम अंश से ही प्रारंभ करता है । अर्थात् ८ वे गुणस्थान में प्रवेश करते ही श्रेणी प्रारंभ होती है । उपशमक साधक ८ वे में प्रवेश करते प्रथमांश से ही उपशम श्रेणी का प्रारंभ करता है । इसी तरह क्षपक वृत्तिवाला साधक क्षपकश्रेणी का प्रारंभ भी ८ वें गुणस्थान में प्रवेश करते ही प्रथमांश से ही करता है । ७ 1 उपशमं श्रेणि के २ अंश हैं- १) उपशम भाव का सम्यक्त्व और २) उपशम भाव का चारित्र | चारित्र मोहनीय कर्म की उपशमना करने के पहले उपशमभाव का सम्यक्त्व वे गुणस्थान पर प्राप्त होता है । क्योंकि दर्शन सप्तक - दर्शन मोहनीय की ३ और अनन्तानुबंधी ४ कषाय = ७ को ७ वे गुणस्थान पर उपशमाता है । इसीलिए उपशम श्रेणी का आरंभक साधक ७ वे गुणस्थान का अप्रमत्त संयत कहा है । ४, ५, ६ और ७ वे इन चार गुणस्थान में कोई भी जीव अनन्तानुबंधी ४ कषायों का उपशमन कर सकता है । तथा दर्शनत्रिक को तो संयम भाव में ही उपशमाता है । अतः इस मत से तो ४ थे गुणस्थान से ही उपशम श्रेणी का प्रारंभ कहा है । इसमें सर्वप्रथम अनन्तानुबंधी कषायों का उपशमन करता है । (मतांतर से अनन्तानुबंधी की विसंयोजना ४ गुणस्थान से ७ वे गुणस्थान तक कहीं भी करता है) बाद में अंतर्मुहूर्त में दर्शनत्रिक की उपशमना करता है । इस तरह दर्शन सप्तक का उपशमन हो जाने के पश्चात् वह आत्मा छट्ठे प्रमत्त, ७ वे अप्रमत्त, गुणस्थान पर सेंकडों बार गमना - गमन करती है । बाद में ८ वें अपूर्वकरण गुणस्थान पर आरूढ आध्यात्मिक विकास यात्रा ११२६
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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