SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 169
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होती है । उस आत्मा की स्पर्शना को भी यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं जो ७ वे गुणस्थान के अन्त में होता है । ८ वे और ९ वे गुणस्थान पर १-१ अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त पूर्वोक्त अपूर्व स्थितिघातादि पाँच कार्यों को करता है, जिससे अशुभ कर्मों की स्थिति और रस बहुत ज्यादा घट जाता है । ८ वे गुणस्थान का संख्यातवाँ भाग बीत जाय और १ भाग अवशिष्ट रहे तब चारित्र्य मोहनीय की २१ प्रकृतियाँ (१२ कषाय + ९ नोकषाय = २१) का अंतःकरण करने का कार्य शुरू करता है । फिर क्रमशः नपुं. और स्त्री वेद, हास्यादि-६, फिर पुरुष वेद, अप्र. + प्र. के क्रोध, मान, माया, और संज्वलन कक्षा की माया इन सबका उपशमन करता है । जिस समय अप्र० + प्र० माया का उपशमन होता है उस समय संज्वलन माया के बंध-उदय और उदीरणा का विच्छेद होता है । अतः तत्पश्चात्वर्ती समय से ८ वे गुणस्थानवर्ती साधक मात्र संज्वलन लोभ का ही वेदक बनता है । यहाँ से लोभ . के उदय के काल के ३ विभाग होते हैं । १) अश्वकर्णकरणाद्धा २) किट्टीकरणाद्धा, ३) किट्टीवेदनाद्धा। १) जिस काल में सत्ता में रहे हुए रसस्पर्धक क्रमशः चढते-चढते रसवाले परमाणुओं का क्रम तोडे बिना ही अत्यन्त अल्परसवाले बनते हैं उस अपूर्व अल्परसवाले स्पर्धक करने की क्रिया को अश्वकर्णकरणाद्धा कहते हैं। संज्वलन माया के बंधादि के विच्छेद के बाद समयन्यून २ आवलिकाकाल में संज्वलन माया का उपशमन करता है । यहाँ अश्वकर्णकरणाद्धा पूरा होता है। बाद में- किट्टीकरणाद्धा का प्रारंभ होता है। " २) किट्टी संज्ञाविशेष का तात्पर्य है । वर्गणाओं के बीच बडा अंतर करना अर्थात् पूर्व और अपूर्व स्पर्धक में से प्रथम-द्वितीयादि की वर्गणा को ग्रहण करके तीव्र विशुद्धि के बल से उनको अनन्त गुणहीन रसवाली बनाकर उनका क्रमशः चढते-चढते रसाणु के क्रम को तोडकर वर्गणा-वर्गणा के बीच बडा अन्तर करना किट्टीकरणाद्धा कहते हैं। इस किट्टीकरण काल में पूर्व-अपूर्व स्पर्धकों की अनन्त किट्टियाँ बनती हैं। फिर भी सत्ता में कितने ही पूर्व-अपूर्व स्पर्धक अपने रूप में रहते ही हैं। अर्थात् सभी पूर्व-अपूर्व स्पर्धकों की किट्टी होती नहीं है । किट्टीकरणकाल के चरम समय में एक साथ अप्र० प्र० लोभ को उपशमाता है तथा संज्वलन लोभ का बंध विच्छेद और बादर (स्थूल) लोभ का उदय विच्छेद होता है । अब मात्र सूक्ष्म संज्वलन लोभ का उदय प्रवर्तमान रहता अब आत्मा ऐसे समय में १० वे गुणस्थान पर आरूढ होती है। यहाँ प्रतिसमय पूर्व में किट्टी में से कितनीक किट्टी को जीव उदय-उदीरणा से भुगतता है, और कुछ को क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११२७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy