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________________ संभव है कि वह ४ थे पर, ५ वे पर, छटे गुणस्थान पर कहीं आकर रुक भी सकता है। आखिर अध्यवसायों पर आधार रहता है। अब चित्र 'ब' देखिए- उसमें तो बडी लम्बी छलांग लगाता है साधक...शमक । या तो सीधे ८ वे या सीधे ही छट्टे, या सीधे ५ वे, या फिर सीधे चौथे गुणस्थान पर आकर गिरता है । यह क्रमिक नहीं गिरता है । सीधे ही उन गुणस्थान के अध्यवसायवाला बनने पर उस उस गुणस्थान पर आकर रुकता है । यह पतन की प्रक्रिया है । क्यों हुआ पतन ? शायद भेद खुल ही गया होगा और आपको रहस्य का ख्याल आ चुका होगा। यह और कुछ नहीं, लेकिन जिन मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ जिनका इस शमक साधक ने पहले से ही जडमूल से क्षय नहीं किया था। मात्र राख से जलते अंगारे को जैसे ढक रखा था, दबाकर रखा था। उसकी राख धीरे धीरे नीचे गिरने पर वे ही अंगारे वापिस खुले हो गए। अब उन पर हाथ-पैर आ भी जाय तो जल जाएगा। ठीक उसी तरह जिन मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ शमाकर दबाकर रखी हुई थी आज उनका ही वापिस उदय हुआ है। अतः उन कर्मों की प्रकृतियों के उदय में आने के कारण पतन निश्चित होता है । इस तरह उपशम श्रेणी निश्चित पतन की श्रेणी है । किसी भी हालत में पतन होना निश्चित ही है । वह ११ वे से कभी आगे बढ ही नहीं सकता है। ठीक इससे विपरीत क्षपक श्रेणीवाला साधक है । जो कभी भी ११ वे गुणस्थान पर जाता ही नहीं है और कभी भी पतन होता ही नहीं है । श्रेणी के इस सामान्य नियम का प्राथमिक स्वरूप समझकर अब स्वतंत्र रूप से दोनों श्रेणियों का विचार कर लें। १) उपशम श्रेणी- . "इतः ऊर्ध्वं गुणस्थानानां चतुर्णा द्वेश्रेण्यौ भवतः उपशमश्रेणी-क्षपकश्रेणी चेति । तत्त्वार्थ राजवार्तिक टीकाकार स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि...अब यहाँ से अर्थात् ८ वे अपूर्वकरण गुणस्थान से... ४ गुणस्थान तक अर्थात् ८, ९, १० और ११ इन ४ गुणस्थान पर्यन्त दो श्रेणियाँ होती हैं। दो प्रकार के स्वभाववाले कहो या दो प्रकार की वृत्तिवाले कहो, ऐसे जीव दो प्रकार की भिन्न-भिन्न दिशाओं का चयन करके आगे बढ़ते हैं । गुणस्थान क्रमारोह ग्रंथकार स्पष्ट करते हैं कि.. शमको हि शमश्रेणि क्षपकः क्षपकावलीम् ॥ ३९ ।। एक शमक-उपशमक स्वभाववाला शमक जीव उपशमश्रेणी का श्रीगणेश करनेवाला होता है । दूसरा... क्षपक अर्थात् क्षय करने के स्वभाववाला जीव क्षपक जीव क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११२५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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