________________
यह एक दृष्टान्त था । ठीक ऐसी ही स्थिति साधक की भी है। बच्चे के स्थान पर कर्म है, माता के स्थान पर साधक स्वयं है । रोने-चिल्लाने के स्थान पर मोहनीय कर्म की
1
1
1
स्थिति है । यही सभी कर्मों का मुखिया मूल राजा है। आखिर साधक इसी मोहकर्म से ही ज्यादा परेशान है । पहले भी आपको बताया कि... १ ले गुणस्थान से १२ वे गुणस्थान तक ८ कर्मों में से एकमात्र मोहनीय कर्म का ही साम्राज्य है। इसी की सत्ता है । मोह की पक्कड आत्मा पर बडी भारी जबरदस्त है। दूसरे शेष ७ कर्म तो बिचारे पंगु की तरह मूक- मौन बैठे रहते हैं । उसका क्षय करने के लिए तो साधक को जल्दबाजी या चिन्ता नहीं करनी पडती है । परन्तु मोहनीय कर्म की प्रकृतियाँ बडी भारी परेशान करती हैं । इसमें विषय—कषाय की मुख्य प्रकृतियाँ जो जीव को सबसे ज्यादा सताती हैं उससे छुटकारा पाना बडा ही असंभव सा लगता है । ऐसी स्थिति में जान छुडाने के लिए.. शमक वृत्तिवाला जीव कुछ क्षण शान्त हुए बच्चे को सो गया है समझकर या भ्रमवश मानकर माता की तरह कर्मों को शान्तकर आत्मा के विकास की दिशा में आगे बढने जाता है । परन्तु उसे इतना ख्याल नहीं है कि जलते हुए अंगारे कहीं राख से थोडी ही बुझ जाएंगे ? राख से क्यों आग शान्त होती है ? संभव ही कहाँ है ? रास्ते में पडे ऐसे राख से दबे अंगारों पर भूल से भी यदि... पैर आ जाय... या हाथ सिगडी पर लग जाय तो कहीं जल जाएंगे । क्योंकि आग दबी थी, शमी थी। लेकिन समूल बुझी नहीं थी । इसलिए दुर्घटना की पूरी संभावना रहती है । इस दृष्टान्त की तरह ही उपशम श्रेणीवाले जीव की स्थिति होती है । एक तरफ तो बडी मुश्किल से आत्मविकास की साधना में कदम आगे रख रहा है । और उसमें भी भ्रान्ति - भ्रमणावश शमन की प्रकिया को ही यदि क्षपक की मान ले तो कैसे कार्यसिद्धि होगी ?
दूसरा क्षपकवृत्ति का साधक है। उसने तो पहले से ही दृढ निर्धार कर रखा है कि किसी भी स्थिति में इन कर्मों को जडमूल से नष्ट करते हुए ही आगे बढना है। मोहनीय कर्म की जितनी भी विषय - कषायादि की कितनी भी भारी या कैसी भी प्रकृतियाँ हो उन सबको जडमूल में से उखाड कर फेंकना है । किसी वृक्ष को यदि जडमूल से उखाड कर फेकेंगे तो ही पुनः नहीं उगेगा । और यदि उसकी जडें वैसे ही रखकर ... ऊपर-ऊपर से ही उखाड़कर फेका तो निश्चित ही वह पुनः उगेगा। ठीक वैसा ही इन कर्म प्रकृतियों का है। यदि आपको अपनी आत्मा सर्वथा कर्मरहित ही करनी है तो फिर दबाने या शमाने का दूसरा विचार क्यों करना चाहिए ?
आध्यात्मिक विकास यात्रा
११२२