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जी हाँ, इन दोनों चित्रों को अच्छी तरह देखिए । १) पहले चित्र में एक युवक सिगडी में जलते हुए अंगारों पर राख या धूल डाल रहा है। जिससे आग छिप जरूर जाएगी। लेकिन याद रखिए यह आग सर्वथा समूल बुझेगी नहीं । धूल या राख के नीचे जलते हुए अंगारे घंटों तक बिना बुझे रह सकते हैं, भले ही उसकी ज्वाला न भी उठे, लेकिन अग्नि तो अग्नि ही कही जाएगी। शायद बच्चे का हाथ लग जाय या खेलता-कूदता आकर गिर जाय तो भी जलने की पूरी संभावना रहती है। क्योंकि अभी भी राख के नीचे अंगारे जलते हुए ही हैं । आपको शायद मालूम ही होगा कि पुराने जमाने में अपने घरों में लोग अक्सर ऐसा ही किया करते थे। रसोई का काम निपटने के पश्चात् भी महिलाएं जलते हए कोयले के अंगारे... या गोबर के छाने-जलते हए होते थे, या लकडे भी जलते हुए होते थे उन्हें राख डालकर ढककर रखते थे। ताकि अचानक मेहमान आदि आ जाने के प्रसंग पर जल्दी से राख हटाई और थोडी सी फूंक लगाई कि.. बस, वापिस सिगडी चालु । चाय-पानी बनाकर आगंतुक-अतिथियों का स्वागत कर लेती थी। यह तो समझने के लिए दृष्टान्त विशेष है।
उपशम श्रेणी पर आरूढ होनेवाले आत्मविकासी साधक भी ऐसी ही वृत्तिवाले होते हैं । अनादिकाल से आत्मा पर कर्म का भार ढेर सारा लगा हुआ है। कर्म मल से मलीन आत्मा अनन्त काल से इस कर्म रूपी पर्वत के नीचे दबी हुई है। कर्म मल से मलीन है। काल भी अनन्त बीत जाता है। श्रान्त हुआ जीव इन कर्मों को समूल जडसहित उखेडकर फेंकने के बजाय आठों कर्मों के मुख्य राजा मोहनीय कर्म के सामने घुटने टेक देता है । सोचता है कुछ देर इनको शमाकर... दबाकर मैं जल्दी से छुटकारा पा जाऊँ। जैसे एक माता अपने सतत रोते-चिल्लाते-चीखते बच्चे को गोद में लेकर किसी कदर सुलाने की कोशिश करती है, घंटों के प्रयत्न के बाद .. बडी मुश्किल से बच्चा आँखें मूंदता है । इतने में ही माता सोचती है कि चलो यह सो रहा है, वहाँ तक मैं जल्दी-जल्दी रसोई का काम निपट लूँ । इस विचार से जैसे ही गोद से उठाकर नीचे रखने जाती है इतने में तो बच्चा जग जाता है फिर रोने-चिल्लाने लग जाता है । आखिर बच्चे की बिमारी वेदनाकारक हो और वह जडमूल से मिटी ही न हो, अन्दर ही अन्दर वेदना सहन करता हो तो ऐसी स्थिति में उसका रोना-चिल्लाना स्वाभाविक है । और माता के लिए भी ऐसी स्थिति परेशानियों से भरी हुई समस्या है। किसी कदर वह भी तो पिण्ड छुडाना चाहती है । मगर क्या करें?
क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
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