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________________ जाती है वे दलिक अल्प होते हैं । और ८ वे गुणस्थान में गुणश्रेणीयोग्य दलिक तो बहुत अधिक होते हैं, परन्तु गुणश्रेणि का कालमान बहुत कम होता है । पहले के गुणस्थान की अपेक्षा गुणसंक्रमण भी बहुत कर्मों का होता है । अतएव वह अपूर्व होता है और आठवें गुणस्थान में इतनी अल्प स्थिति के कर्म बांधे जाते हैं कि जितनी अल्पस्थिति के कर्म पहले के गुणस्थान में कदापि नहीं बंधते थे। इस प्रकार इस ८ वे गुणस्थान में स्थितिघातादि पाँचों पदार्थों का अपूर्व विधान होने से इस आठवें गुणस्थान का 3 पूर्वकरण नामकरण सार्थक है। आठवे गुणस्थान में ध्यानयोगी आत्मा की विशिष्ट अवस्था शुरू होती है। औपशमिक या क्षायिक भावरूप विशिष्ट फल प्राप्त करने के लिए चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन या क्षय करना पडता है । इसके लिए भी ३ करण करने पडते हैं । १) यथाप्रवृत्तिकरण, २) अपूर्वकरण, ३) अनिवृत्तिकरण । इनमें क्रमशः यथाप्रवृत्तिकरण–७ वाँ गुणस्थान, ८ वाँ गुणस्थान अपूर्वकरण का, तथा अनिवृत्तिकरण रूप नौंवा गुणस्थान है। जो अपूर्वकरण गुणस्थान प्राप्त कर चुके हैं, कर रहे हैं या भविष्य में भी प्राप्त करेंगे उन संब जीवों के अध्यवसायस्थानों (परिणाम भेदों) की संख्या असंख्यात लोकाकाश के प्रदेशों के समकक्ष होती हैं। कालमान तथा कर्मप्रकृतियों का क्षयादि ८ वे गुणस्थान का कालमान जघन्य १ समय का तथा उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। इसमें ७ भाग होते हैं। प्रथम भाग में देवायु को छोड ५८ कर्मप्रकृतियों का बंध होता है । २ से छठे भाग तक निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों को छोडकर ५६ कर्मप्रकृतियों का बंध होता है। प्रथम भाग में २ प्रकृतियाँ निद्रा और प्रचला बंध की व्युच्छित्ति मनुष्याय की विद्यमानता में होती है । उपशम श्रेणी पर आरूढ जीव नियम से चारित्र मोहनीय कर्म का उपशमन करते हैं । उपशम श्रेणी पर आरूढ जीव ८ वे गुणस्थान के प्रथम समय में मृत्यु नहीं पाता है, किन्तु दूसरे आदि समयों में मृत्यु संभव है । अतः निद्रा और प्रचला प्रकृतियों का बंध नहीं होता है । क्षपकश्रेणी में तो मरण वैसे भी संभव नहीं है। पहले अशुद्ध परिणामों के कारण कर्मों की लम्बी स्थिति का बंध होता था, वे अब ८ वे गुणस्थान पर तीव्र विशुद्धि होने के कारण जघन्य १ समय और उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त परिमित काल की ही बंधाती है । यहाँ २५ क्रियाओं में से १ माया वृत्तियाँ की संभावना लगती है । आठों कर्मों की यहाँ सत्ता रहती है । बंध की स्थिति में आयुष्य कर्म को छोडकर १११८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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