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________________ पर्यन्त आगे-आगे के समय में स्थापित किये जानेवाले दलिक पहले-पहले के समय में स्थापित किये गए दलिकों से असंख्यात गुने ही अधिक समझने चाहिए । अत्यन्त विशुद्ध अध्यवसाय के द्वारा अपवर्तनाकरण से ऊपर की स्थिति में से उतारे हुए दलिकों को शीघ्र क्षय करने के लिए उदय के समय से प्रारंभकर अन्तर्मुहूर्त के समय प्रमाण स्थानकों में पूर्व - पूर्व स्थानक से उत्तर - उत्तर स्थानकों में असंख्य - असंख्य गुणाकाररूप से दलिकों की स्थापना करनी इसे गुणश्रेणी कहते हैं । ४) अपूर्व गुणसंक्रम - पहले बंधी हुई सत्ता में रही हुई अशुभ प्रकृतियों को वर्तमान में बंध हो रही शुभ प्रकृतियों में स्थानांतरित कर देना अर्थात् परिणत कर देना गुण संक्रमण कहलाता है । इसके क्रम में प्रथम समय में अशुभ प्रकृतियों के जितने दलिकों का शुभ प्रकृति में संक्रमण होता है उसकी अपेक्षा दूसरे समय में असंख्यात गुने अधिक दलिकों का संक्रमण होता है । तीसरे में दूसरे से भी असंख्यगुना अधिक । इस प्रकार जब तक गुण संक्रमण होता रहता है, तब तक पहले-पहले समय में संक्रमण किये गए दलिकों में आगे-आगे के समय में असंख्य गुने अधिक दलिकों का ही संक्रमण होता है । I ५) अपूर्व स्थितिबंध - पहले अशुद्ध परिणामों के कारण कर्मों की दीर्घ स्थिति बंधती थी । अब इस गुणस्थान में तीव्र विशुद्धि होने से अल्प- अल्प स्थिति बंधती है । और वह भी पूर्व - पूर्व से उत्तर - उत्तर की स्थिति का बंध पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग घटता जाता है । अथवा अपूर्वकरण के जो पहले समय का जो स्थितिबंध होता है। उससे अनुक्रम से घटते हुए उसके पश्चात् का स्थितिबंध पल्योपम का असंख्यातवे भाग का हीन (कम) होता है । इस तरह सभी स्थितिबंधों का समझना चाहिए । 1 प्रत्येक स्थिति बंध का काल दो प्रकार से होता है । अतः अपूर्वकरण भी दो प्रकार से होता है — १) क्षपक और दूसरा उपशम से । I यथार्थ नामकरण— यद्यपि स्थितिघात आदि ये पाँचों बातें पहले के गुणस्थानों में भी होती हैं लेकिन सामान्य रूप से होती हैं । तथापि आठवें गुणस्थान में ये पाँचों अपूर्वरूप से होती हैं । क्योंकि पहले के गुणस्थानों में अध्यवसायों की जितनी शुद्धि होती है उसकी अपेक्षा आठवे गुणस्थान में उनकी शुद्धि अधिक होती है । पहले के गुणस्थान में बहुत कम स्थिति का और अत्यल्प रस का घात होता है, परंतु ८ वे गुणस्थान में अधिक स्थिति और अधिक रस का घात होता है । इसी तरह पहले के गुणस्थान में गुणश्रेणी और कालमर्यादा अधिक होती है। तथा जिन दलिकों की गुणश्रेणी (रचना या स्थापना) की 1 क्षपक श्रेणि के साधक का आगे प्रयाण १११७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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