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कि... साधक को अपूर्व भावधारा उल्लसित होती है । और उसी से कर्मों का नाश होता है। उससे शीघ्र ही कर्मप्रकृतियों का क्षय = नाश करके आगे बढ़ने लगता है। उस समय परिणाम-अध्यवसायों की धारा इतनी ज्यादा विशुद्ध हो जाती है कि.... पहले कभी भी कदापि प्राप्त न हुआ हो ऐसा उल्लास, परमानन्द, आत्मप्रकाश अपूर्व आत्मवीर्य प्रगट होता है । यही अपूर्वकरण का परिणाम है।
इस अपूर्व आत्म विशुद्ध अध्यवसायों के प्रति समय अनन्त गुनी विशुद्धि होती जाती है, जिसके कारण कर्म का उपशम, क्षय या स्थिति घात और अनुभाग खंडन होता है । मोहनीय कर्म का संज्वलन कक्षा का मान मंद होते ही या क्षय होते ही जीव श्रेणी शुरू करता है । इस कक्षा में पहुंचे हुए साधक अपने आप को पवित्र ध्यान में मग्न तल्लीन रखता है । यहाँ ऐसी कक्षा में आत्मा के उत्थान-विकास के दो मार्ग निश्चित होते हैं । १) उपशम श्रेणी और २) क्षपक श्रेणी।। अपूर्वकरण गुणस्थान में ५ बातें- आठवें गुणस्थान के समय जीव पाँच वस्तुओं का विधान करता है- १) अपूर्व स्थितिघात, २) अपूर्व रसघात, ३) अपूर्व गुणश्रेणी, ४) अपूर्व गुणसंक्रमण, ५) अपूर्व स्थितिबंध।
- १).अपूर्व स्थितिघात-कर्मों की बडी स्थिति-जो कर्म दलिक आगे उदय में आनेवाले हैं, उन्हें अपवर्तनाकरण के द्वारा अपने उदय के नियत समयों से हटा देना स्थितिघात कहलाता है। .
२) अपूर्व रसघात- पहले के बंधे हुए ज्ञानावरणीयादि कर्मों के फल देने की तीव्र शक्ति को अपवर्तनाकरण के द्वारा मन्द कर देना रसघात कहलाता है। ___३) अपूर्व गुणश्रेणी-जिन कर्मदलिकों का स्थितिघात किया जाता है अथवा जो कर्मदलिक अपने अपने उदय के नियत समयों से हटाये जाते हैं उनको समय के क्रम से अन्तर्मुहूर्त में स्थापित कर देना गुणश्रेणी कहलाता है । स्थापित करने का क्रम इस प्रकार का है- उदय के समय से लेकर अन्तर्मुहूर्त पर्यन्त के जितने समय होते हैं उनमें से उदयावलि के समयों को छोडकर शेष रहे समयों में से प्रथम समय में जो दलिक स्थापित किये जाते हैं, वे कम होते हैं । दूसरे समय में स्थापित किये जानेवाले दलिक पहले समय में स्थापित दलिकों से असंख्यगुणे अधिक होते हैं । इस प्रकार अन्तर्मुहूर्त के चरम समय
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आध्यात्मिक विकास यात्रा