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________________ नियट्टि बादर (निवृत्ति बादर) = अपूर्व करण गुणस्थान___ इसी आठवें गुणस्थान का दूसरा नाम निवृत्ति बादर भी है । निवृत्ति के लिए प्राकृत भाषा में नियट्टि शब्द हैं । कषायों के २ भेद किये हैं । १) बादर और २) सूक्ष्म । इनमें से स्थूल-कक्षा के जो बादर कषाय हैं उनका क्षय करना-नाश करना । और चौथे संज्वलन की कक्षा के जो सूक्ष्म कषाय पडे हैं वे होते हुए भी जिसे परेशान न कर सके ऐसे बादर कषायों की निवृत्ति हो जाती है । यहाँ कषायों की निवृत्ति के बाद... जो आत्मा के उत्पन्न अध्यवसाय उसे भी नियट्टि-निवृत्ति कहते हैं। अतःकरण, आत्मपरिणाम, अध्यवसाय और निवृत्ति ये सभी समानार्थक पर्यायवाची नाम हैं । बादर कषायों की निवृत्ति हो जाती है, अतः निवृत्ति बादर अवस्था अपूर्वकरण रूप गुणस्थान है। . प्रत्याख्यानीय कषाय चतुष्क का क्षय अथवा उपशम करके जीव सातवें अप्रमत्त गुणस्थान पर आता है । वहाँ सूक्ष्म विचारों से भी पर हो जाता है । तब जाकर प्रमादरहित ध्यानावस्था बढती है । ऐसे धर्मध्यान में जब आगे बढकर जीव कर्मों को दबाने के बजाय क्षय समूल नष्ट करता है और काफी गहरा ध्यान करता है तब आठवें अपूर्वकरणं गुणस्थान के सोपान पर आरूढ होता है । यहाँ आकर धर्मध्यान में से शुक्ल ध्यान में प्रवेश करता है । यहाँ ऐसी अवस्था में बादर-स्थूल कक्षा के कषायों की निवृत्ति होने से चारित्र मोहनीय कर्म के संज्वलन कषाय का क्षय करने की योग्यता प्राप्त होती है। आध्यात्मिक विकास के पथ पर जीव दो बार = दो जगह अपूर्वकरण करता है। पहला अपूर्वकरण जीव मिथ्यात्व के गुणस्थान में करके सीधा चौथे सम्यक्त्व के गुणस्थान पर पहुँचता है । उस समय पहला अपूर्वकरण जीव ने दर्शन गुण (श्रद्धा के भाव) में किया था। दर्शनमोहनीय कर्म में जो मिथ्यात्व प्रबल था उसे हटाना था, और चारित्र मोहनीय के घर में से अनन्तानुबंधी कषाय को भी हटाना था इसलिए उसको भी साथ लेकर अनन्तानुबंधी सप्तक का क्षय करके अपूर्व शुद्ध अध्यवसायों से सम्यक्त्व सम्यग् दर्शन की प्राप्ति की थी। वैसे ही दूसरा अपूर्वकरण यहाँ ८ वें गुणस्थान पर चारित्र मोहनीय कर्म के घर में करना है । अतः चारित्र मोहनीय कर्म के घर में मुख्य जो कषाय भाव है उनमें भी जो बादर की कक्षा के स्थूल कषाय हैं उनका क्षय करके चारित्र गुण के अपूर्व विशुद्ध अध्यवसाय प्राप्त करना है । आत्मा के यथाख्यात स्वरूप या अनन्त चारित्र गुण के अत्यन्त विशुद्ध स्वरूप का अवलोकन या प्रगटीकरण या उस गुण का रसास्वाद या अनुभूति इस दूसरे अपूर्वकरण में प्राप्त होती है । इसमें आत्मा का पुरुषार्थ इतना ज्यादा तीव्र होता है क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण १११५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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