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अर्थात् अधःप्रवृत्तकरण के अंतर्मुहूर्त काल को व्यतीत करके सातिशय अप्रमत्त साधक प्रतिसमय जब विशुद्ध परिणामों को प्राप्त करता है तब वह अपूर्वकरण गुणस्थानवाला कहलाता है । इस ८ वें गुणस्थान में साधक प्रत्येक समय में अपूर्व आत्मपरिणामों को प्राप्त करता जाता है। अतः भिन्न समयवर्ती भित्र जीवों के परिणाम पृथक्-पृथक् होते हैं । अर्थात् अधःप्रवृत्तकरण के समान परस्पर सदृश नहीं होते हैं परन्तु एक समयवर्ती जीवों के परिणाम सदृश और विसदृश दोनों प्रकार के होते हैं । अथवा इसको अपूर्वकरण गुणस्थान इसलिए कहा है कि... किसी आत्मोत्थानकारी आत्मा के काल में ऐसी अपूर्व अवस्था, अपूर्व आत्मबल, एवं आत्म विशुद्धि प्रगट होती है । जैसी पहले कभी भी नहीं हुई थी। ऐसे अपूर्व आत्मबलपूर्वक कर्मों की प्रदेशस्थिति तथा अप्रशस्त प्रकृतियों का अनुभाग-घात वेगपूर्वक होता है तथा शुभ कर्मों का अनुभागविशेष बढता है और नूतन कर्मबंध जघन्य स्थितिवाले बन्धते हैं। _ अपूर्व शब्द का एक अर्थ जो पहले किया है अर्थात् पूर्व में पहले के काल में कभी भी नहीं ऐसा अपूर्व । अब दूसरे अर्थ में अपूर्व = अत्यन्त नवीन = नए, करण अर्थात् आत्मपरिणाम विशेष अर्थात् पहले कभी नहीं प्रगट हुए ऐसे नित्य नए-नए आत्मा के विशुद्ध-विशुद्धतर अध्यवसाय अर्थात् परिणाम विशेष । चारित्र मोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम और क्षय में निमित्त होनेवाले, पूर्व में अप्राप्त, विशिष्ट वृद्धि गत, शुद्धोपयोग परिणाम युक्त जीव अपूर्वकरण प्रविष्ट शुद्धिसंयत है । विशेषताएंइस अपूर्व गुणस्थान की अनेक विशेष कक्षा की विशेषताएं हैं....
१) प्रतिसमय अनन्तगुणी विशुद्धि होती है। २) पूर्वबद्ध कर्मों का असंख्यातगुना स्थितिकांडकघात होता है। ३) नए कर्मों का स्थितिबंध बिल्कुल कम हो जाता है । ४) पहले बंधे हुए कर्मों का असंख्यातगुना अनुभाग-कांडक घात । ५) गुणश्रेणी निर्जरा। ६) गुण-संक्रमण अर्थात् अनेक अशुभ प्रकृतियाँ शुभ में बदलती हैं। ७) भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम समान नहीं होते हैं। ८) समान या एक समयवर्ती जीवों के परिणाम समान तथा असमान
दोनों प्रकार के होते हैं।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा