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शायद आपके मन में ऐसी शंका खडी होगी कि जब भूतकाल अनन्त पुद्गल परावर्त काल (अनन्त वर्षों) का बीत चुका है फिर भी ऐसे भाव या आत्म विशुद्ध परिणाम आज ही प्रकट हुए और पहले कभी क्यों नहीं हुए? इसके उत्तर में यही कहना है कि इतने लम्बे भूतकाल में जीव जिन कषायों की जंजीरों में बंधा हुआ रहा तथा वे कषाय भी तीव्रता की कक्षा के रहे उनके कारण आत्मगुण जो आवृत्त रहे अतः आत्मा के विशुद्ध भाव प्रगट नहीं हो पाए । कषाय आत्मगुणघातक रहे हैं। आत्मसंमुखीकरण की क्रिया ये कषाय कभी करने ही नहीं देते हैं, अतः आत्मविमुखीकरण का कार्य इन कषायों के द्वारा होता है। धीरे-धीरे अनन्तानुबंधी के–४,अप्रत्याख्यानीय की कक्षा के-४, प्रत्याख्यानीय की कक्षा के भी ४ --- क्रोध, मान, माया और लोभ ऐसे ४ + ४ + ४ = १२ कषायों की निवृत्ति के बाद अब संज्वलन की कक्षा के ४ कषाय अवशिष्ट बचे हैं।
अब सातवें अप्रमत्त गुणस्थान पर पहुँचा हुआ साधक जीव जिसके संज्वलन के क्रोध, मान, माया और लोभ ये ४ कषाय तथा हास्यादि और ३ वेद के ऐसे नौं नोकषायों की अत्यन्त मन्दता के कारण पहले कभी भी नहीं प्राप्त हुए ऐसे अपूर्व परम आनन्दमय आत्म परिणाम रूप करण जब प्राप्त करता है, तब अपूर्वकरण की अवस्था प्राप्त हुई ऐसा कहा जा सकता है। आध्यात्मिक विकास का यह ८ वाँ सोपान है, गुणस्थान है । इस ८ वे गुणस्थान में योगी ध्यानी साधक को पहले अनन्त भूतकाल में कभी भी प्राप्त नहीं हुई ऐसी अपूर्व आत्मीय गुणों की, अपूर्व विशुद्ध आत्मा परिणामरूप अध्यवसायों की, अपूर्व परमानन्द की प्राप्ति होती है । जी हाँ.... जैसे जैसे.... कषायों का क्षय-नाश होता है वैसे वैसे आत्मा के अध्यवसाय अत्यन्त विशुद्ध-विशुद्धतर कक्षा के होते ही जाते हैं।
स्वाभाविक है कि पहले कषायों की प्रचुरता बलवत्तरता थी इसलिए पूर्वकाल में कभी आत्मा में ऐसा विशुद्ध भाव-परिणाम जगे ही नहीं .... और आज कषायों के आवरण के विलय के कारण अब अत्यन्त शुभ अध्यवसाय-भाव आत्मा के ज्ञानादि गुणों के खजाने में से प्रगट होने लगे हैं । अतः आत्मा को परमानन्द की प्राप्ति होती है । सप्तम अप्रमत्त संयत गुणस्थान पर पहुँचे हुए महात्मा प्रति समय परिणामों की अनन्त गुनी विशुद्धि के कारण अपूर्वकरण की कक्षा के आत्मपरिणामों को प्राप्त करता है तब उस श्रमण महात्मा को अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती-आठवें सोपान पर आरूढ हुए माने गए हैं। गोम्मटसार के जीव काण्ड में कहते हैं कि
अंतोमुहूत्तकालं गमिऊण अधापवत्तकरणं तं । पडिसमयं सुज्झतो अपुवकरणं समल्लियई ॥ ५० ॥
क्षपकश्रेणि के माधक का आगे प्रयाण
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