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करणों के लिए अयोग्य है । जहाँ जहाँ गुणश्रेणि होती है वहाँ प्रायः देशोपशमना निधत्ति, निकाचना और यथाप्रवृत्तसंक्रम का भी संभव होता है। अतः उनका परस्पर अल्पबहुत्व कहते हैं- किसी भी कर्म की गुण-श्रेणि में गुणश्रेणि द्वारा जिन दलिकों की व्यवस्था स्थापना होती है वह अल्प है। तथा देशोपशमना द्वारा जो उपशमित होते हैं वे असंख्यातगुने है, उनसे जो दलिक निधत्तिरूप होते हैं वे असंख्यातगुने हैं । और उनसे भी जो निकाचित रूप दलिक होते हैं वे असंख्यातगुण होते हैं, और उनसे यथाप्रवृत्त संक्रम द्वारा संक्रमित दलिक असंख्यात गुणे होते हैं । इस तरह की निधत्ति एवं निकाचनाकरण की व्याख्या है।
आठों करणों में करण रूप आत्मवीर्य के जो अध्यवसाय विशुद्धि रूप परिणाम होते हैं उनका अल्पबहुत्व इस प्रकार दर्शाते हैं। स्थितिबंध और रस (अनुभाग) बंध के अर्थात् बंधनकरण के हेतुभूत अध्यवसाय अल्प होते हैं। उनसे उदीरणा के योग्य अध्यवसाय असंख्यात गुणे होते है। उनसे उद्वर्तनाकरण, अपवर्तनाकरण तथा संक्रमणकरण इन तीन करणों के समुदित अध्यवसाय असंख्यगुणे रहते हैं। उनमें । उपशमनायोग्य अध्यवसाय असंख्यातगुने हैं। उनसे निधत्तियोग्य अध्यवसाय असंख्यातमने होते हैं और उनसे भी निकाचनायोग्य अध्यवसाय असंख्यातगुने ज्यादा होते हैं। इस तरह १) स्थितिबंध, २) उदीरणा, ३) त्रिविध संक्रमण, और उपशमनाकरण आदि में अध्यवसाय अनुक्रम से असंख्यात मुने ज्यादा ज्यादा होते हैं। इस तरह ये ८ जो करणरूप है अर्थात् आत्मा के विशुद्धतम अध्यवसाय रूपजो परिणाम है उनका स्वरूप समझकर शुभ विशुद्ध परिणामरूप आत्मवीर्व-आत्मबल बढाना चाहिए। ८ वा मुसयान-अपूर्वकरण
अपूर्वाणगुणाप्तित्वादपूर्वकारण मतम्। नामकरण की शाब्दिक व्याख्या इस प्रकार की गई है— पूर्व =अर्थात् पहले. . । आज के वर्तमान काल की अपेक्षा पहले भूतकाल में कभी। इस पूर्व = पहले कालवाची शब्द के आगे निषेधकाची "अ" लगा दिया है । जिससे अ+ पूर्व = अपूर्व = अर्थात् पहले कभी भी नहीं। आज वर्तमान काल तक संसार के भूतकाल में जितना लम्बा-चौडा समय बीता है उस अनन्त भूतकाल में... करणं = आत्मपरिणाम रूप जो विशुद्धतम अध्यवसाय होते हैं वे । ऐसे विशुद्धतम आत्मपरिणामविशेष जो पहले कभी भी प्राप्त नहीं हुए है उन्हें अपूर्वकरण कहा है।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा