________________
दोनों करणों में जघन्य और उत्कृष्ट ऐसी २ प्रकार की विशुद्धि होती है। कारण कि प्रति समय असंख्य लोकाकाश प्रमाण अध्यवसाय है। पंचसंग्रह के द्वितीय भाग के उपशमनाकरण के १० वे श्लोक में अध्यवसाय की विशुद्धि की बात लिखते हुए कहते हैं कि... अपूर्व करण के प्रथम समय में जो उत्कृष्ट विशुद्धि है उससे दूसरे समय की जघन्य विशुद्धि भी अनन्तगुनी होती है । उससे दूसरे समय की आत्मा के अध्यवसाय की उत्कृष्ट विशुद्धि अनन्तगुनी होती है । इस तरह संपूर्ण अपूर्व करण के अतर्मुहूर्त काल पर्यन्त जानना चाहिए। तब जाकर अनादि-अनन्त कालीन राग-द्वेष की निबिड ग्रन्थि का भेदन होता है । और आत्मा इस उपशमनाकरण से प्रथम उपशमसम्यक्त्व प्राप्त करती है । इनका वर्णन पहले काफी विशद रूप से कर चुके हैं, अतः यहाँ तो करण के अधिकार में भेद दर्शन मात्र कराया है।
अपूर्वकरण में १) अपूर्व स्थिति घात, २) अपूर्व रसघात, ३) अपूर्व गुणश्रेणि, ४) अपूर्व स्थितिबंधादि होते हैं । अनिवृत्तिकरण मोती की माला की तरह होता है । उसमें भी चढते क्रम से जैसे एक मोती से दूसरा बडा, दूसरे से तीसरा बडा, इस तरह क्रमशः सभी बडे बडे हो उसी तरह अनिवृत्तिकरण में पूर्व-पूर्व समय से उत्तर-उत्तर करण में अनन्तगुनी विशुद्धि होती है। अतः मुक्तावली के क्रम की उपमा दी है। अपूर्वकरण की तरह ही अनिवृत्ति करण में भी स्थितिघातादि चारों होते हैं । अनिवृत्तिकरण का संख्यातवाँ भाग शेष रहता है तब प्रथमस्थिति और अंतरकरण होता है। दोनों करणों का क्रिया काल अंतर्मुहूर्त परिमित है।
७ निघत्तकरण और ८ वां निकाचनाकरण
देसुवसमणा तुल्ला होइ निहत्ती निकायणा नवरि ।
संकमणं वि निहत्तीइ नत्यि सव्वाणि इयरीए ।। १०३ ।। देशोपशमनाकरण के तुल्य निधत्तकरण और निकाचनाकरण है । मात्र निधत्ति में संक्रमण नहीं होता है और निकाचना में सभी करण लाग नहीं होते हैं। देशोपशमनाकरण में जैसे भेद स्वामी-साद्यादि प्ररूपना, तथा प्रमाणादि जो भी कुछ कहा है वह सब निद्धति
और निकाचना में भी समझना चाहिए। विशेष अन्तर मात्र इतना ही है कि देशोपशमनाकरण में जब संक्रमण, उद्वर्तना और अपवर्तना ये तीनों करण होते हैं तब निधत्तिकरण में संक्रमणकरण के बिना उद्वर्तना और अपवर्तना ये दो ही करण प्रवर्तते हैं। तथा निकाचनाकरण में कोई भी करण प्रवर्तता ही नहीं है। क्योंकि निकाचित दल सर्व
दाणकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
११११