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________________ उपशमन देश और सर्व की दृष्टि से दोनों प्रकार का होता है । देशोपशमना और सर्वोपशमना । देशोपशमना अर्थात् अल्पांश में उपशमन आठों कर्मों का होता है । जबकि सोपशमना मात्र मोहनीय कर्म की ही होती है। उनके पर्यायवाची अन्य नामों में देशोपशमना को अप्रशस्तोपशमना और सर्वोपशमना को प्रशस्तोपशमना भी कहते हैं। इतना ही नहीं, देशोपशमना को १) अनुदयोपशमना, २) अगुणोपशमना और ३) अप्रशस्तोपशमना ऐसे तीनों समानार्थक-पर्यायवाची नाम भी दिये गए हैं। इसी तरह सर्वोपशमना को उदयोपशमना, गुणोपशमना, तथा प्रशस्तोपशमना तीनों पर्यायवाची नाम दिये हैं। ये सभी पर्यायवाची नाम उस उस प्रकार की क्रिया की सार्थकता को लेकर बने हैं अतः सार्थक नाम है। इसके अन्तर्गत ३ करण- देशोपशमना दो प्रकार से होती है । १) यथाप्रवृत्तिकरण से, और २) यथाप्रवृत्तिकरण के बिना भी । जबकि सर्वोपशमना मात्र यथाप्रकृतिकरण से ही होती है । १) यथाप्रवृत्तिकरण, २) अपूर्वकरण, और ३) अनिवृत्तिकरण इन तीनों के द्वारा कराई हुई.जो उपशमना उसे करणकृत उपशमना कहते हैं। . जैसा कि यथाप्रवृत्तिकरणादि का विवेचन पहले काफी कर आएहैं। शायद आपको ख्याल ही होगा। १) पर्वत पर से निकली हुई नदी जैसे अपने प्रवाह में पत्थरों को भी घसीटती ले. जाती है वे पत्थर घिस घिस कर कितने सुंदर गोल हो जाते हैं। इसे नदीगोलपाषाण न्याय कहते हैं । ठीक इसी तरह संसार में बहते दुःख के प्रवाह में अनिच्छा से भी अकाम निर्जरा करते हुए कई जीव गोल पाषाण की तरह देशउपशमनाकरण करते हुए ग्रन्थि प्रदेश के किनारे पहुंचते हैं । इसे यथाप्रवृत्तिकरण कहते हैं । याद रखिए, यह · भी एक प्रकार का करणविशेष है, आत्मवीर्यविशेष है । इसमें आत्मा की शक्ति ही प्रयुक्त होती है। ऐसे तीनों करण पंचसंग्रह ग्रन्थ में दर्शाए हैं। पमं अहापवत्तं बीयं तु नियही तइयमणियट्टी। · अंतोमुहूत्तियाई उवसमअनलाइ कमा॥५॥ प्रथम यथाप्रवृत्तिकरण, द्वितीय अपूर्वकरण, और तृतीय अनिवृत्तिकरण इस तरह क्रम से ३ करण हैं । इन तीनों के होने का काल अंतर्मुहूर्त है । इन तीनों के बाद अन्तर्मुहूर्त कालप्रमाण उपशम सम्यक्त्व प्राप्त होता है । अतः इनकी गणना उपशमनाकरण के अंतर्गत की गई है । करण अर्थात् पूर्व-पूर्व समय से उत्तर-उत्तर समय पर्यन्त अनन्त अनन्त गुणे बढते हुए आत्मा के विशुद्धतर परिणाम विशेष । यथाप्रवृत्तिकरण और अपूर्वकरण इन १११० आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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