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________________ उदीरणाकरण कहते है। मिथ्यात्व मोहनीय कर्म का उपशमन करता है। अतः उसे उपशमनाकरण कहते हैं । कुछ शुभ प्रकृतियों की निधत्ती और निकाचना भी करता है । उसे निधत्तकरण तथा निकाचनाकरण कहते हैं। इस तरह आत्मा की विशिष्ट्र वीर्यशक्ति अथवा–विशुद्ध आत्मपरिणाम द्वारा उपरोक्त आठों करण रूप कार्य होते हैं । उस विशिष्ट वीर्य या विशुद्ध आत्म परिणाम यह स्थाम योग का आलंबन कारण बनता है । अर्थात् 'स्थाम' यह उसका कार्य है । इस “स्थाम योग” विशेष शक्ति के प्रभाव से अपने आत्मप्रदेशों में से अलग हुए, भिन्न हुए कर्मदलिकों को वहाँ-वहाँ से आकर्षित करता है । जैसे दंताली-झाडु के द्वारा कचरा घास-तृणादि को खींच लिया जाता है वैसे स्थाम शक्ति द्वारा ध्यान में ऐसी प्रबल शक्ति है कि जिससे आत्मप्रदेशों से अलग हुए कर्मदलिक एकत्रित हो जाते हैं। जिससे उनका क्षय करने का कार्य आसान बन जाता है। ८ करणों की व्याख्या पंच संग्रहकार श्री चन्द्रमहत्तराचार्य जैसे गीतार्थ ज्ञानी महापुरुष जिन्होंने पंचसंग्रह ग्रन्थ का सर्जन किया है उन्होंने अद्भुत विवेचन किया है । आठों करणों के विषय में स्वतंत्र दूसरे भाग का सर्जन किया है । उसमें काफी विस्तार से विवेचन किया है। १) ? २) संक्रमण करण बझंतियासु इयरा ता ओवि य संकमति अन्नोन्नं । जा संतयाए चिट्ठहिं बंथाभावेवि दिट्ठीओ ॥१॥ जो कर्मप्रकृतियाँ सत्तास्वरूप में विद्यमान हैं वे अबध्यमान अर्थात् नहीं बंधाती प्रकृतियों का बध्यमान-बंधाती हुई प्रकृतियों में जो संक्रम होता है, अर्थात् बध्यमान प्रकृतियों के रूप में परिणमन होता है, अर्थात् अपने स्वरूप को छोडकर बंधाती हुई प्रकृति के स्वरूप को धारण करती है उसे संक्रमणकरण कहते हैं । बंध का अभाव होते हुए भी दो दृष्टि से संक्रमण होता है। जिसे कर्मप्रकृति का जिसमें संक्रमण-परिणमन होता है वह उसमें समा जाती है । उसी रूप बन जाती है । अतः जिसमें संक्रमी उसी का कार्य करेगी। आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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