________________
सामया
शक्तिा चष्टा ६ पिराक्रम | ५ उत्साह
७ ।
वीर्य । २
योग
१
बनती जाती है। जिसके आधार पर निर्जरा = कर्मक्षय भी ज्यादा-ज्यादा तीव्रतर-तीव्रतम होता ही जाता है । अतः क्रमशः उत्तरोत्तर ये विशेष बलशाली-प्रभावी है । लक्ष्य तो कर्मक्षय का ही है।
करण-करण भी जैन कर्मशास्त्र का विशेष (टेक्नीकल) पारिभाषिक शब्द है। यह आत्मा की विशिष्ट वीर्य शक्ति, आत्मा का विशुद्ध परिणाम विशेष अर्थ में प्रयुक्त है। कहाँ किस समय आत्मा के कर्मक्षय विषयक कौन से परिणाम कैसे होते हैं उसके आधार पर करण के भेद होते हैं। इस तरह करण के ८ प्रकार विशेष रूप से बताए गए हैं । वे इस प्रकार हैं- १) बंधन करण २) संक्रमण करण, ३) उद्वर्तना करण, ४) अपवर्तना करण, ५) उदीरणा करण, ६) उपशमना करण, ७) निधत्त करण, ८) निकाचना करण।
वीर्यान्तराय कर्म के क्षयोपशम से प्रगट हुई आत्मा की वीर्यशक्ति–वीर्यगुण अथवा सुविशुद्ध आत्मपरिणामरूप आठों करण ये “स्थाम योग प्रकार” के आलंबन रूप है। “स्थाम" यह विशुद्ध ध्यान रूप है जो योग और वीर्य से भी ज्यादा सामर्थ्य रखता है। उसमें ज्ञानादि पाँच आचारों के सेवनपूर्वक अपूर्व भावोल्लास सहित विशुद्ध आत्म परिणामरूप कारण ही आलंबन रूप बनता है।
उपशमना-करण (अपूर्वकरण) करते समय जीवात्मा को प्रति समय अनंतगुण विशुद्ध आत्मपरिणाम होते हैं । उपशम सम्यक्त्व की प्राप्ति के समय जीव शुभ कर्मों का बंध करता है । अशुभ कर्मप्रकृतियों का शुभ में संक्रमण करने को संक्रमणकरण कहते हैं। शुभ कर्मों की स्थिति और रस में वृद्धि अर्थात् उद्वर्तना करता है उसे उद्वर्तनाकरण कहते हैं। अशुभ कर्मों की स्थिति और रस में हानि-अर्थात् अपवर्तनाकरण करता है। तथा अशुभ कर्मों का क्षय करने अर्थात् खपाने के लिए उनकी उदीरणा की जाती है । उसे
क्षपक श्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
११०७