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________________ के बाद सिद्ध बनने के बाद्ध सिद्ध के जीव अनन्त काल तक एक ही आकाश प्रदेश को स्पर्श करता रहता है । जब से आया जीव तब से एक ही जो निर्धारित जगह ग्रहण की है उसी और उतने ही आकाश प्रदेशों में अनन्त काल तक बिना हिले, पास के समीपस्थ आकाश प्रदेश का भी स्पर्श नहीं करता है। अनन्त काल तक स्थिर रहना यह आत्मा का अनन्त वीर्यगुण है । अनन्त काल तक स्वस्वरूप में स्थित रहना, आत्मगुण में ही रमणता करना, अपने ही आत्मगुण जो अनन्त स्वरूप में ज्ञानादि प्रकट हुए हैं, उनका ही भोग-उपभोग करना है। यही आत्मा की अनन्त भोगलब्धि तथा अनन्त उपभोगलब्धि गुण है। क्योंकि सिद्धावस्था में सर्वथा कर्ममुक्त, देहमुक्त, संसारमुक्त, बंधनमुक्त, जन्म-मरण के चक्र से मुक्त सिद्धात्मा - मुक्तात्मा के किसी भी प्रकार का पौगलिक संबंधपर पदार्थ का संबंध तो है ही नहीं । अतः अन्य किसी पर पदार्थ का भोग-उपभोग तो है ही नहीं । यह स्थिति तो संसार में थी। इसलिए यह सवाल तो खडा ही नहीं होता है । दूसरी तरफ संसारावस्था में जब अनन्त भौतिक- पौगलिक पदार्थों की उपलब्धि-प्राप्ति थी उस दिन अनन्त भोगोपभोग की लब्धि प्रकट नहीं थी। उस दिन तो अन्तराय कर्म के भोगान्तराय और उपयोगान्तराय कर्म के कारण यथेच्छ रूप से जीव भोग ही नहीं पाया और सिद्धात्मा बन जाने के पश्चात् जब अनन्त भोग लब्धि और अनन्त उपभोगलब्धि प्रकट प्राप्त हो चुकी है तब अनन्त पौद्गलिक- भौतिक पदार्थ ही छूट गए। किसी का भी साथ ही नहीं रहा । कोई हरकत नहीं । लेकिन उनके सामने आत्मा के अनन्त ज्ञानादि गुण प्रकट हो चुके हैं। अतः अनन्त भोगोपभोग लब्धि के आधार पर यदि भोग और उपभोग आत्मा करना चाहती है तो अपने ही अनन्त ज्ञानादि का भोगोपभोग करें । एक तरफ ज्ञान - दर्शनादि गुण भी अनन्त की चरम कक्षा के प्राप्त हैं और दूसरी तरफ यदि भोग-उपभोग की लब्धि भी अनन्त स्वरूप में प्राप्त है तो ऐसी दोनों की अनन्तता की स्थिति में ... . काल भी अनन्त का प्राप्त होता है। अतः अनन्त काल तक सिद्धात्मा अनन्त भोगोपभोग की लब्धि से अनन्त ज्ञानादि गुणों का भोगोपभोग करती रहे तो कभी भी अन्त होनेवाला ही नहीं है। सम्भव ही नहीं है। इस तरह दानादि लब्धियाँ निष्फल नहीं सार्थक-सहेतुक हैं। लेकिन संसारी सकर्मी अवस्था में अनन्तगुने अन्तराय कर्म के उदय के कारण आत्मा की स्थिति सचमुच काफी दयनीय- शोचनीय बन जाती है। क्योंकि अनन्त दानादि लब्धियों में से मात्र अनन्तवें भाग की ही दानादि की लाब्धि क्षायोपशमिक भाव से प्रकट रहती है। उदय में रहती है। अतः बिचारा संसारी जीव अनेक पदार्थ होते हुए भी कैसे भोग पाए ? दानान्तराय कर्म दिलाने ही नहीं देता है। वह दाता ११०४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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