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________________ दर्शनावरणीय कर्म दर्शनगुण का आच्छादक आवरक बनता है । ठीक उसी तरह अन्तराय कर्म आत्मा के अनन्त वीर्य गुण का आवरक–आच्छादक बनता है । अतः अन्तराय कर्म आत्मा की अनन्त शक्ति को रोकता है । अन्तराय शब्द का सीधा अर्थ विघ्न पैदा करना है । जो स्वयम् सहज प्रकट होता ही रहता है । उसमें विघ्न पैदा करके उसकी शक्ति होते हुए भी कुंठित कर देना, जितनी है उतनी प्रकट होने न देना, उसे रोकना और अल्पसीमित मात्रा में ही प्रकट करने देना यह अन्तराय कर्म का काम है। जैसे ज्ञान मुण में ५ प्रकार के मति आदि ज्ञान है, ठीक उसी तरह अनन्त वीर्य गुण में आत्म वीर्य ५ प्रकार का है । अतः ५ रूप में आत्मशक्ति प्रकट होती है । १) अनन्त दान, २) अनन्त लाभ, ३) अनन्त भोग, ४) अनन्त उपभोग, ५) अनन्त वीर्य। जिस समय आत्मा सर्वथा निरावरण अर्थात् सर्वकर्मरहित मुक्तावस्था सिद्धस्वरूपी होती है तब भी ये अनन्तदानादि लब्धि स्पष्ट रूप में, पूर्णरूप में प्रकट रहती है। अतः सिद्धों के भी अनन्त दान, अनन्त लाभ आदि गुण प्रकट रहते हैं। उनसे क्या कैसा स्वरूप होता है यह पंचसंग्रहकार स्पष्ट करते हैं हमारे संसार के व्यवहार में हम जो दानादि की व्यावहारिक प्रवृत्ति देखते हैं वैसी दानादि की व्यावहारिक प्रवृत्ति सिद्धों को नहीं होती है। अतः दानादि प्रवृत्ति रूप नहीं अपितु लब्धिरूप होती है । अतः ये दानादि शक्ति सिद्धों में लब्धिरूप से होती हैं । जो नैश्चयिक रूप से होती है। सर्वथा संपूर्ण रूप से आत्मा की अनन्त शक्ति, अनन्तलब्धि प्रकट होने से...दानादि.लब्धियाँ भी अनन्त के स्वरूप में प्रकट होती हैं । नैश्चयिक दानादि का स्वरूप इस प्रकार समझाते हैं- १) परभाव पौगलिक भाव के त्याग रूप दान लब्धि रहती है। परभाव, पौगलिकभाव ये सब कर्म के क्षयोपशमजन्य हैं । जबकि क्षायिक भाव जो सर्वथा-संपूर्ण कर्म के क्षय से जन्य है उसके प्रगटीकरण से सिद्धात्मा अनन्त परभाव पुद्गल पदार्थों संबंधि पौगलिक भाव का संपूर्ण त्याग करती है । २) सर्वथा संपूर्ण कर्मक्षय के कारण अपनी आत्मा के स्वरूप की निरावरण स्थिति में प्राप्ति यह अनन्त शुद्ध आत्मा स्वरूप का लाभ है। ३, ४) ऐसे अनन्तात्मिक शुद्ध स्वरूप का अनुभव करना अनुभूति-स्वानुभूतिरूप भोग और उसीका निरंतर, अखंड रूप से अनन्तकाल तक बार-बार भोग यही उपयोग है । ५) और ऐसी स्वानुभूति रूप स्वभाव दशा में ही रमणता, रममाण स्थिति अखण्ड रूप से निरंतर-अविरत-सतत बनाई रखनी, उस स्वभाव में ही प्रवृत्ति रूप वीर्य प्रवृत्त करना-यह अनन्तवीर्यगुण है । एक बार सिद्धशिला पर आ जाने क्षपक श्रेणि के साधक का आगे प्रयाण
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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