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________________ उसी दिन मेरुपर्वत पर सौधनद्रादि६४ इन्द्रों तथा लाखों-करोडों देवताओं ने जल तथा क्षीर से प्रभ का अभिषेक किया। इतने बड़े बड़े कलश थे...और इतना जल था कि.. ..सौधर्मेन्द्र महाराज को शंका हुई कि इतना ज्यादा पानी आज के जन्मे हुए परमात्मा कैसे सहन कर पाएंगे? इस शंका का जवाब देते हुए शैशव में ही भगवान ने अपने पैर का अंगूठा जमीन पर स्पर्श किया। बस, इतने में तो १ लाख योजन का मेरु पर्वत चलायमान हो गया। कवि ने उतोक्षालंकार से कल्पना करते हुए काल्पनिक चित्र कल्पसूत्र में उपस्थित किया है कि ... संपूर्ण सुवर्णमय मेरु पर्वत क्या कंपायमान हुआ... उसकी शिलाएँ चट्टानें लडखडाती हुई गिरने लगी। ऐसा मालूम होने लगा जैसे मानों अपने ऊपर परमात्मा को पाकर या परमात्मा का स्पर्श पाकर मेरु पर्वत नाचने लगा है । आनन्दित होकर सुवर्ण का दान देने लगा हो। इस तरह... इस घटना को स्पष्ट करते हुए कारण रूप में...आत्म प्रदेश की असीम शक्ति का परिचय दिया है। जन्म के पहले दिन शरीर कितना छोटा होता है? शरीर की शक्ति का तो सवाल ही कहाँ है? वह तो आत्मा की अनन्त शक्ति का परिचय है। इस तरह आत्मा की शक्ति असीम, अमाप, अकल्प्य और अनन्त है। अतः इस आत्मवीर्य का परिचय करना चाहिए। आत्मवीर्य ही करणरूप है। यह करण आत्मा की शक्तिविशेष के अर्थ में है। आत्मबल भी कह सकते हैं । जैन आध्यात्मिक शास्त्रों में यह 'करण' पारिभाषिक शब्द है। आगम शास्त्र तथा कर्मविषयक शास्त्रों में इसका उपयोग विशेष रूप से ज्यादा उपलब्ध है तथा इसी आत्म वीर्य के अर्थ में प्रयुक्त है। वीर्य और वीर्यान्तराध कर्म वीर्य शब्द शक्ति-सामर्थ्य अर्थ में प्रयुक्त है। वीर्य आत्मा का अपना मौलिक गुण है । ज्ञानादि की तरह यह भी स्वतंत्र गुणविशेष है अतः जैसे ज्ञान गुण से चेतन जानता है, सब कुछ दर्शनगुण से प्रत्यक्ष स्पष्ट देखता है, ठीक उसी तरह चेतनात्मा अनन्तवीर्य-शक्तिमान है जैसे त्मिा 'प्रकट आत्मशक्ति अतराय कर्म ११०२ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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