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________________ के बजाय कृपण कंजूस बना देता है । लाभान्तराय कर्म वस्तु होते हुए भी, मिलने की आशा होने पर भी मिलने ही नहीं देता है। यह कर्म तो भिखारी-गरीब बना देता है। तीसरा भोगान्तराय कर्म..मिली हुई होने के बावजूद भी भोगने नहीं देता है । चौथा उपभोगान्तराय कर्म मिली हुई वस्तु का बार-बार उपभोग भी नहीं करने देता है। तथा पाँचवा वीर्यान्तराय कर्म आत्मा की शक्ति अनन्तगुनी होने के बावजूद भी...अशक्त-कमजोर बिल्कुल निर्वीर्य तेज-ओज एवं वीर्यहीन बना देता है । ऐसे एक अन्तराय कर्म पाँच प्रकार का होने के कारण पाँचों तरफ से आत्मा को मार मारता हैं। गिरा देता है। कमजोर-खोखला बना देता है । देखिए, कैसी है कर्म की विटंबना । इसलिए साधक को कर्म का ऐसा दारुण-भयंकर स्वरूप समझकर किसी भी स्वरूप में, हर हालत में कर्मक्षय समूल नाश-नष्ट करने का ही लक्ष्य बनाकर या होम करके मैदान में उतरना ही पडेगा। इसके लिए लब्धि शक्ति के रूप में आत्मा को अपनी करण-शक्ति-आत्मवीर्य को प्रकट करना ही होगा। आखिर सामर्थ्य योगादि कैसे है? किस अर्थ में हैं ? उसके लिए समानार्थक पर्यायवाची नाम पंचसंग्रहकार ने इस प्रकार प्रकट किये है । आत्मावीर्य के एकार्थक नाम जोगो विरियं धामो उलाह परवकमो तहा चेट्ठा। सत्ति सामत्थं चिय योगस हवंति पन्जाया ॥४॥ . ' (योगो वीर्य स्थामा पराक्रमः तथा चेष्टा। . .. शक्तिः सामर्शमेवयोगस्व भवन्ति पर्यायाः) १) योग, २) वीर्य, ३) स्थाम, ४) उत्साह, ५) पराक्रम, ६) चेष्टा, ७) शक्ति तथा ८) सामर्थ्य ये आठों नाम योग - आत्मवीर्य के ही समानार्थक पर्यायवाची नाम हैं। १) योग-जीवादेशानां कर्मक्षवं प्रति व्यापारणं नियोगिनापिया जीवेन राजैव योगः । जैसे कोई राजा कार्य का योग आने पर अपने कर्मचारियों-अधिकारियों को कार्यशील बनाता है, उसी तरह जीव भी कर्मक्षय के कार्य के लिए अपने आत्मप्रदेशों को ध्यानविशेष के द्वारा कार्यशील बनाता है, उसे योग कहते हैं। २) वीर्य-जीवप्रदेशैः कर्मणः प्रेरणं ध्यानाग्नौ चेटिकयैव कचवरस्य । जैसे दासी-नोकर के द्वारा कचरा बाहर फेक दिया जाता है, वैसे ही जीवात्मा ध्यान विशेष के द्वारा कर्म रूपी कचरे को ध्यानाग्नि में होम करने के लिए प्रेरणा करे उसे “वीर्य” कहते हैं। क्षपकश्रेणि के साधक का आगे प्रयाण ११०५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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