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समूल कर्मक्षय करना ही एकमात्र अन्तिम लक्ष्य लेकर साधक को संकल्प करके ठीक उसी दिशा में कार्यान्वित होना चाहिए । सर्वकर्मक्षय का ही दूसरा नाम मोक्ष है । कर्मरहित आत्मा की बंधनरहित स्वतंत्र स्थिति ही मोक्ष है । यही बात साधक को मंत्र रूप में बार-बार रटण कराने के लिए..."अरिहंत" शब्द दिया गया है। इसका रटण करे । “अरिहंत" यह किसी व्यक्तिविशेष का नाम नहीं है। यह तो पदवाची संज्ञा है । आत्मा के लिए... ध्येयरूप अवस्था का वाचक पद है।
अरि + हंत = अरिहंत । कर्मशत्रु + हन्ता आत्मा = आत्मशत्रुओं का, कों का क्षय, हनन करनेवाली आत्मा अरिहंत स्वरूप है । यह साध्य जिस किसी ने भी साध लिया है वे शुद्ध परमात्मा बन चुके हैं । अतः उनको नमस्कार करने के रूप में "नमो अरिहंताणं" का मंत्र साधक कों दिया गया है । परन्तु इसका मात्र शाब्दिक जाप ही नहीं करना है । अर्थात्मक, रहस्यात्मक स्वरूप में. . अर्थ.. रहस्य समझकर इस मन्त्र का लक्ष्य-संकल्प लेकर साधक को चलना चाहिए । जप का मन्त्र मन को जागृत करने के लिए सचेत-सावधान करने के लिए है। अतः इस पद से मन पर प्रहार करना चाहिए । बार-बार मन पर प्रहार करते रहने से... मन उस लक्ष्य के अनुरूप बनता है । वैसे मनोगत भाव बनते हैं । यह लाभ है जप का। कर्मक्षय के बल पर आत्मविकास
आत्मा का आध्यात्मिक विकास कैसे होता है? क्या मात्र पुण्योपार्जन करने से आत्मा का विकास होना संभव है ? पुण्य तो मात्र सुख की साधन-सामग्री बाह्यरूप से देने का भागीदार है। अच्छी-ऊँची स्वर्ग की देवगति, ऊँचे देवघराने में जन्म, वैभव, विलास, ऐश्वर्य, तथा भोगोपभोग की सर्व साधन-सामग्रियों की प्राप्ति पुण्य के उदय से हो जाती है । यहाँ तक कि धोपयोगी-देव-गुरु-धर्म की साधन सामग्री आदि का योग भी पुण्योदय से प्राप्त होता है । जिससे सुलभता से धर्माराधना हो सके । पुण्य संसार में संसार के व्यवहार में बाह्य साधन सामग्री प्रदान कर जीव को सुखी-सम्पन्न, वैभवी, विलासी बनाता है । संसार में मान-सन्मान-पद-प्रतिष्ठा सत्ता आदि प्रदान करके बडा बना देता है । इससे संसार व्यवहार में बाह्यदृष्टि से विकास लगता है । ऐसा आभास होता है । लेकिन इससे आध्यात्मिक विकास नहीं हो पाता है।
सही अर्थ में आध्यात्मिक विकास आत्मा के ऊपर लगे हए कर्मों के क्षय से ही होता है । कर्म यहाँ दो विभाग में गिनने चाहिए । एक तो लगे हुए कर्म जो लग कर-आत्मा
क्षपकणि के साधक का आगे प्रयाण
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