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के साथ आत्मसात होकर आत्मा पर चिपककर काल के गर्त में जाकर भूतकालीन बन चुके हैं। तथा दूसरे जो प्रतिदिन नए बंध रहे हैं। नए बंधने के विभाग में वर्तमानकालीन पापात्मक जो अशुभ क्रियारूप है वे पापकर्म । पाप की प्रवृत्ति करने से अशुभ कर्मों का पंच होता रहता है । और पुण्य की शुभ प्रवृत्ति करने से शुभ कर्मों का बंध होता ही रहता है। इस तरह वह कर्म का का अगादि से अनन्त काल तक चलता ही आ रहा है । अभी की आत्मा की आँखें नहीं खुली कि... इस तरह कोपार्जन करते ही रहने से मेरा विकास न तो कभी हुआ है, और न ही कमी होने की संभावना है । अतः कर्म ही आत्मा के लिए बंधक-बेडीरूप है । किसी भी स्वरूप में अपनी चेतना को कर्म के बंधन से मुक्त करनी ही चाहिए । कर्म का अनादिकालीन संयोग संबंध सदा के लिए छोड़ना ही चाहिए । इस छोडने की प्रक्रिया में आसान कौन सा भेद लगता है ? पहला भूतकालीन कर्म का बंधन छोडना ज्यादा आसान लगता है, या वर्तमानकालीन जो रोजिंदा जीवन में नए पाप कर्म करते रहने से बंध बिसका होता रहता है ? यदि नई पाप की प्रवृत्ति जो अट्ठारह ही पापों की होती रहती है वे सब पाप आज वर्तमानकाल में जब प्रवृत्तिरूप हैं वहाँ तक नए हैं और . पाप का आगमन और कर्म का बंध जैसे ही आत्मप्रदेशों में प्रविष्ट हुए कि कलह- लोभ
फिर तो वे आत्मा के साथ बंध होकर कर्म संज्ञा पाकर भूतकाल के गर्त में जाकर पुराने हो जाएंगे। भूतकाल के खजाने में ऐसे सेंकडों कर्म बांधे हुए सत्ता में पडे रहते हैं । सत्ता में कर्मों ने
ढेर सारापर्वत का रूप धारण कर रखा मोहनीय कोर्स
है। उनमें से एक एक कर्म कभी एक साथ अनेक कर्म भी अपनी अपनी अबाधाकाल की अवधि पूर्ण होने पर
उदय में आते ही रहते हैं। वे अपना सुख-दुःख रूप शुभ अशुभ का फल प्रदान करते ही रहते हैं। शुभ पुण्यात्मक कर्म जो अच्छा है वह सुख संपत्ति और सत्ता प्रदान कर जीव को कुछ काल तक राजी कर देगा। लेकिन इससे जीव का आत्मिक आध्यात्मिक विकास नहीं होगा।
दूसरी तरफ अशुभ पाप कर्म जो आत्मा पर ढेर सारे लगे हुए हैं उनकी कालिमा जो आत्मा पर छाई हुई है वह कलंक आत्मा पर बडा भारी है । बस, इसी पापकर्म के भार
-माया मान क्रोध
' प्रकृति दुराचार चोरी
-रोग
हिंसा
मन
>< शरीर
आत्मा)
गोत्र
नाम
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आध्यात्मिक विकास यात्रा