________________
तक नहीं आने दिया । स्वयं को स्व की पहचान तक कभी नहीं होने दी । आत्मा को ऐसी गुलाम बना दी कर्म ने कि, अपनी लगाम में जकड लिया कि जिसके कारण लाचारी स्थिति में विचारी बनकर काल गुजारने लगी । बस, इसी कारण अनन्त काल बीता और आज भी बीतता जा रहा है। आज भी सोचिए...६०,७० या ८० साल की जिन्दगी बीतने के बावजूद भी अपनी आत्मा का विचार तक कितने लोगों को आता है ? चौबीसों घण्टे शरीर-आहार-विहार-धनोपार्जन आदि में इस तरह मश्गूल बनकर जीवन बिता रहा है कि.... उसे स्वप में भी आत्मा का विचार तक नहीं आता है । सोचिए, इतना मूढ बना हुआ जीव सब कुछ अपने पास होते हुए भी क्या कर पाएगा? इसलिए उपाध्यायजी यशोविजयजी म. “अमृतवेल की सज्झाय में संकेत करते हैं कि
चेतन ! ज्ञान अजुगालीए टालीए मोह संताप रे।
बिल मडोलतु वालीए पालीए सहज गुण आपरे॥ हे चेतन आत्मा ! तूं अपने ज्ञान के खजाने को प्रगट कर और मोह के संताप को दूर कर ! चंचल-अस्थिर मन को स्थिर कर...और बस ! अपने सहजगुणों का पालन कर । इतनी सी छोटी एक गाथा में बड़ी कीमती बात कर दी । आत्मा को जंगाने के लिए... जागृत करने के लिए बस इतना इशारा पर्याप्त है । इसमें सुंदर प्रक्रिया बता दी है कि... हे चेतन ! सर्वप्रथम तू अपना आत्मज्ञान प्रगट कर । और आत्मज्ञान से ही मोह का संताप दूर होगा। इसी आत्मज्ञान की जागृति से चंचल चित्त शान्त होगा, स्थिर होगा। तभी अपने सहज स्वाभाविक गुणों का प्रगटीकरण होगा। उन ज्ञानादि गुणों में रममाण करने के लिए चेतन समर्थ सक्षम हो पाएगा। अन्यथा संभव ही नहीं हो सकेगा। इसलिए अध्यात्म मार्ग ही एक मात्र मार्ग है जिसमें आत्मा स्वयं स्वस्वरूप को पहचान सकती है। प्राप्त कर सकती है। अतः अध्यात्म विद्या सर्वश्रेष्ठ-सवोंपकारी सर्वकल्याणकारी विद्या है । हर हालत में इसका अभ्यास करके आत्मा का ऊर्ध्वगमन, आध्यात्मिक विकास करना ही चाहिए।
कर्मक्षय का लक्ष्य
अनादि-अनन्तकालीन कर्मसत्ता का स्वरूप समझकर दारुण भयंकर परिणाम समझकर अब सर्वप्रथम चेतनात्मा को कर्मक्षय का ही लक्ष्य बनाना चाहिए। सभी साधकों का एक मात्र लक्ष्य कर्मक्षय का ही रहना चाहिए । यही चरम कक्षा का अन्तिम लक्ष्य होना वाहिए । कर्मक्षय उसमें भी संपूर्ण कर्मक्षय, सर्वांशिक कर्मक्षय-सर्वथा सर्व कर्मों का
१०९६
आध्यात्मिक विकास यात्रा