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________________ जमा हुआ है आत्मा पर । वह आवरण या आच्छादन (ढकने) का काम करता है आत्म गुणों को। अतः गुणों के आगे कर्म का 'आवरण' शब्द जोडने से उस कर्म का नाम बन जाता है । ज्ञान गुण है, दर्शन गुण है अतः उनका आच्छादक-आवरक कर्म-मनावरण, दर्शनावरण कर्म कहलाता है। ____ अनादि काल से आत्मा देहधारी स्थिति में संसारी अवस्था में-संसार में रही है। जन्म-मृत्यु और जीवन की इस प्रक्रिया में जीती हुई आत्मा को अनेक प्रकार के राग-द्वेषों को करते हुए अनेक कर्म कदम-कदम पर बंधने ही पड़ते हैं। कर्म बांके बिना संसार में जी ही नहीं सकती है आत्मा। बिना कर्म संोग के संसार नहीं और बिना संसार के कर्म नहीं। ___ यहाँ मल्ल युद्ध करने के लिए २ पात्र है। एक कर्म और दूसरी आत्मा । इन दोनों . का युद्ध अनादि काल से चल रहा है। आचारांग सूत्र में लिखते है कि- “कत्व वि बलिओ कम्मो, कत्व वि बलिओ अप्पा इन दोनों मल्लों के युद्ध में कभी तो आत्मा बलवान, सशक्त बनती है और कभी कर्म बलवान बनते हैं। कर्म बलकार बनने में तो राग-द्वेष-क्लेश कवाय का वातावरण, आर्त-रौद्र ध्यान की वृत्ति तक लेश्याओं की परिणति आदि सभी बंध हेतु सहायक कारण बनते है । आमाको बलवान बनाने में-धर्म ही एकमात्र सहायक है। और उसमें भी आत्म धर्म-आत्म गुणवृतिकारक वर्ण, आत्मकर्मसक धर्म विशेष सहायक उपयोगी एवं उपकारी है। अनादि काल से कर्म ने आत्मा को अपने कब्जे में लेकर दबोच दी है । गुलाम बना दी है । कर्म मल्ल आत्मा के सीने पर चड बैठा है। किसी भी तरह आला नामक मल्ल का लगाघोंट रहा है। ऐसी स्थिति में आत्मा बडी मुश्किल से श्वास सेते हुए परवश बनकर जी रही है । कालनिर्गमन कर रही है। इस अनन्त काल से करें की थपेड़ें खाकर किसी कदर जी रही है । कर्म के सामने हार खाकर लाचारी की स्थिति में आत्मा रह रही है। ऐसे मल्लयुद्ध में, कर्माधीन स्थिति में आत्मा को लड़ने के लिए जिसकी आवश्यकता थी वे सभी अत्म गुण आत्मा में ही मौजूद हैं । अनादि काल से आत्मा में ही पड़े हैं । अन्दर झांक कर देखा होता तो गुणों का भरा हुआ खजाना मिलता । करण अर्थात् आत्मशक्ति विशेष वह भी अन्दर भरी पड़ी है । लेकिन घने-काले-श्याम बादलों ने जैसा सूर्य के सामने कवच बना लिया हो वैसा कवच कर्म ने भी आत्मा के सामने ऐसा घना-गाढ बना लिया है कि जिसके कारण आत्मा में ही गुणों की राशी होते हुए भी कभी भी ख्याल क्षपकणि के साबका आगे प्रयाण १०९५
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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