________________
. भावि परिणाम का कुछ भी विचार किये बिना उस पाप कर्म को करने के लिए लालायित हो जाता है। आखिर कर ही बैठता है। परन्तु यहाँ की सजा ही पर्याप्त नहीं है। परन्तु मृत्यु के पश्चात् नरक गति में उसकी क्या हालत होगी? किस तरह परमाधामी उसके टुकड़े-टुकडे करेगा? उसका उसे विचार तक नहीं आता है । इसी तरह अनादि-अनन्त काल से चलता ही आ रहा है। जीव इसी चक्र में फसा हुआ रहता है । इसी कारण अनादि-अनन्त कालीन संसार चक्र चलता रहता है । इस कर्मचक्र के वमल-भंवर में फसा हुआ रहता है । कर्म बांधने का लक्ष तो जीव का कर्मोदयभावजन्य अनादि काल से है ही । कर्मजन्य स्थिति में ही रहे हुए के लिए यह स्वाभाविक ही है । आखिर कर्म के ही घर में रहना (अर्थात् उदय में) और फिर कर्म करने-बांधने का लक्ष नहीं रहेगा तो किसका रहेगा? हाँ, धर्म के उदय में जीव रहे तो ही कर्मक्षय का लक्ष्य रहता है अन्यथा नहीं। लेकिन आप इस बात को अच्छी तरह जानते ही होंगे कि धर्म और कर्म का अनादिकालीन वैर है।
कर्म
आत्मा
कर्म
धर्म-कर्म का अनादि वर- . धर्म और कर्म बिल्कुल पूर्व-पश्चिम दिशा की तरह सर्वथा विरुद्ध हैं। परस्पर विरोधि है । धर्म कर्म को हटानेवाला है और कर्म आते ही धर्म को मार भगाने की कोशिश
करता है। फिर इन दोनों - धर्म
दुश्मनों के रहने के लिए आधारभूत स्तंभसमान एक ही घर है। वह है "आत्मा" । इसी चेतनात्मा में आत्म धर्म अर्थात् अपने
गुण रहते हैं। आत्मा है ही गुणात्मक । गुण का चेतन द्रव्य आत्मा के साथ अभेद एवं अविनाभाव संबंध है । अतः गुण उत्पन्न नहीं होते हैं और बाहर से भी नहीं आते हैं। लेकिन अन्दर आत्मा में ही, आत्मा के साथ ही रहते हैं । अतः गुण आत्मा के साथ अनादि काल से हैं और अनन्तकाल तक रहेंगे ही। अनुत्पन्न-अविमशी स्वरूप है गुण, गुणी दोनों का। कर्मों के आवरण से तो मात्र आच्छादित होते हैं। कर्म जड पुद्गल परमाणुरूप हैं। कार्मण वर्गणा के पुद्गल परमाणुओं जो राग-द्वेष की तीव वृत्ति के कारण जीव ने ग्रहण किये हैं उनका एक स्तर
गुणात्मक
१०९४
आध्यात्मिक विकास यात्रा