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________________ कर्मबंध की हेतुता, कर्मनिरोध की हेतुता, कर्मक्षय हेतुता, समस्त ब्रह्माण्डरूप संपूर्ण लोकक्षेत्र की विविधता, विचित्रता, बोधिदुर्लभता, तथा धर्मसाधक श्री अरिहंतादि पंचपरमेष्ठियों की प्राप्ति की दुर्लभता का स्वरूप चिंतन करना ध्यानसहायक है । इस तरह ध्यानाभ्यासी साधक चिन्ता (चिन्तन) तथा भावनाओं के आलंबन से ध्यानारंभ करता है। तथा पुनः ध्यान की समाप्ति के बाद पुनः अनित्यादि अनुप्रेक्षाओ, चिंतन करता है और यदि थोडे विराम-विश्राम के पश्चात् पुनः ध्यान करने की इच्छा या उत्साह हो तो तद्विषयक चिंतन तथा भावनाओं का आलंबन लेकर पुनः ध्यान में प्रवेश कर सकता है। इस तरह ध्यान में प्रवेश के पूर्व, तथा ध्यान के पश्चात, तथा दो ध्यान के अन्तराल काल में भी भावनाओं-अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करने का आलंबन लेकर ही साधक को आगे बढना चाहिए । अनु + प्रेक्षा = अनुप्रेक्षा शब्द का प्रयोग उमास्वातिजी ने तत्त्वार्थ में किया है । अनु = अर्थात् पश्चात्-प्रेक्षा-निरीक्षण-ज्ञानयोग से चिन्तन करते हुए देखना । इस तरह अनुप्रेक्षा को चिन्तनात्मक प्रक्रिया बतायी है । अतः भावनाएं चिन्तनात्मक हैं । वैसे शान्तसुधारस आदि स्वतंत्र रूप से भावना विषयक स्वतंत्र विशिष्ट ग्रन्थ हैं (फिर भी मैंने शान्तसुधारस के ही आधार पर.."भावना भवनाशिनी” नामक स्वतंत्र पुस्तक लिखी है, उसमें से भावनाओं का स्वरूप विस्तार से अच्छी तरह समझकर साधक ध्यान साधना में आगे बढें ।) भावना विषयक अभ्यास के लिए ज्ञान का खजाना इस पुस्तक में काफी अच्छा है। प्रस्तुत ग्रन्थ में अत्यन्त उपयोगी है । अतः संक्षिप्त में १२ भावनाओं का कुछ विवेचन जरूर प्रस्तुत करता हूँ। १) अनित्य भावना प्रिय जनों के संयोग, संबंध, धन-संपत्ति, विषय-सुख, शरीर, आरोग्य, यौवन, आयुष्य, संसार की अनन्त वस्तुएं सब अनित्य हैं । जो भी कुछ संसार में परिवर्तनशील है, उत्पन्न तथा नष्ट होनेवाले हैं वे सब अनित्य हैं । पौद्गलिक-भौतिक पदार्थ इष्ट संयोगादि सब अनित्य हैं । जन्म-मरण की दृष्टि से नित्य ऐसी आत्मा भी अनित्य है । लेकिन सभी मात्र अनित्य ही है ऐसा एकान्त नहीं है । द्रव्य रूप से ध्रुव नित्य है । और गुण–पर्यायरूप से उत्पाद–व्यय होने के कारण अनित्य है । अतः उत्पाद–व्यय यही ध्रुव स्वभाव है ऐसी मूरों के जैसी भूल मत करना । अनेकान्त दृष्टि से स्याद्वाद के निकष पर कष कर नित्यानित्य उभयरूप मानना ही सत्य स्वरूप है । सत्य ज्ञान है । अन्यथा कुछ लोग एकान्त अनित्य ही मानते हैं और उत्पाद–व्ययात्मक स्वरूप ही मानते हैं परन्तु ध्रुव स्वरूप मानते ही नहीं ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०८३
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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