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________________ है। ध्रुव स्वरूप द्रव्य मूल पदार्थ को ही न मानों-न स्वीकारो तो फिर गुण–पर्यायों का अस्तित्व ही कैसे रहेगा? तब तो फिर अनित्यता का भी आधार क्या रहेगा? अतः यह भी पूरी अज्ञानता है। अतः अनित्यता भी सच्चे अर्थ में मानिए । अनित्य पदार्थ के ज्ञेय विषयों-एवं वस्तुओं के यथार्थ स्वरूप को देखने-चिंतन करने से पर पदार्थों का मोह-ममत्व घटता है। और उनकी क्षणभंगुरतादि समझने से तथा एक मात्र चेतनात्मा नित्यरूप ख्याल में आती है । अतः अनित्य भावना अत्यन्त उपयोगी है। २) अशरण भावना आधि, व्याधि, उपाधि, आपत्ति और भय से त्रस्त इस संसार में सच्चे अर्थ में कोई स्नेही-स्वजन अपना सगा नहीं है । दुःख, पीडा और रोगादि से भरपूर इस संसार में दूसरे कौन आपको शरण देने में समर्थ हैं ? जी नहीं। कोई नहीं। राजा, मालिक आदि कोई शरण देनेवाले नहीं हैं । वे सभी अशरणरूप हैं । ऐसा इस अशरणभावना में चिन्तन करते हुए देव-गुरु-धर्म ही एकमात्र सच्चे शरणदाता है ऐसा समझकर संसार स्वरूप की वास्तविकता दृष्टि पथ में लाकर स्वयं अपने मन को समझाए। ३) एकत्व भावना एगोऽहं नत्यि में कोई नाहमन्नस्स कस्सई। एवमदीण मणसो अप्पाणमणुसासई॥ मैं अकेला ही हूँ मेरा कोई नहीं है और मैं भी किसी का नहीं हूँ । संसार की यह माया तो मात्र स्वार्थिक है। अपना स्वार्थ सिद्ध होता हो तो सभी स्वजन संबंधी तैयार बनने रहने के लिए तैयार हो जाते हैं मात्र लोक व्यवहार से । परन्तु सच्चाई यह है कि मैं इस संसार में अकेला ही आया हूँ, और अकेला ही जाऊँगा । मैं किसी के साथ आया नहीं हूँ और मेरे साथ भी कोई पत्नी–पुत्रादि कभी भी नहीं आएंगे । यह स्वार्थी अर्थ में अशुभ भावना नहीं है परन्तु संसार की सच्चाई को समझानेवाली यह भावना है । अतः इस भावना से मन को भावित करके कभी भी किसी की मदद की अपेक्षा न रखकर स्वयं ही अपनी आत्मा को समभाव में रखकर रागद्वेष से बचना ही श्रेष्ठ स्वरूप है। ४) अन्यत्व भावना अन्यत्व नामक इस भावना के बल पर साधक को विजातीय समस्त पदार्थों से पर रहने की कला सीखनी है । यह शरीर कितना ही मनोहर हो पर मैं देहरूप नहीं हूँ। यह १०८४ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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