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भावनायोग
अध्यात्म योग का पूरा आधार भावनायोग है। योगबिन्दु में औचित्ययुक्त आचरण अर्थात् उचित प्रवृत्ति, व्रत - महाव्रतादि युक्त साधना, साधक का मैत्र्यादि भाव प्रधानता सहित जिनागमानुसारी तत्त्वचिन्तनादि को अध्यात्मयोग कहते हैं । ध्यान की व्याख्या करते हुए “तत्र ध्यानं चिन्ता - भावना पूर्वकः स्थिरो ऽध्यवसायः " इस प्रकार का जो लक्षण दिया है उसमें भावनापूर्वक के स्थिर अध्यवसाय को ध्यान कहा है । अतः तत्त्वचिन्तन तथा भावना का विषय भी ध्यान के लिए अत्यन्त आवश्यक है। विचार तन्त्र की स्थिरता करनी है जिससे वह ध्यानरूप बने । बात सही है परन्तु कैसे विचार ? अच्छे - बूरे सब प्रकार के विचार रहते हैं । यदि अशुभ खराब विचार ही स्थिर हो जाएंगे तो वह आर्त-रौद्र प्रकार का अशुभ ध्यान हो जाएगा । और यदि अध्यवसाय की धारा शुद्ध रही तो उनकी एकाग्रता पूर्वक की स्थिरता यह शुद्ध ध्यानकारक बनेगी । अतः विचारों को स्थिर करने के पहले उन्हें शुद्ध करना अत्यन्त आवश्यक है। विचारतन्त्र में अशुद्धि राग-द्वेष-क्लेश- कषाय - पापादि की प्रवृत्ति तथा चिन्ता आदि से आती है । जबकि अशुद्धि के कारण हटने पर तत्त्व चिन्तनादि की प्रक्रिया से तथा भावनाओं के आधार पर - द्वेषादि की मात्रा काफी कम होती है । जिन भावों को बार-बार घूंटा जाय वे भावना बन जाते हैं । भावना भवनाशिनी कही जाती है । भव अर्थात् संसार । इस संसार का नाश् करने का सामर्थ्य भावनायोग में अच्छा है । बाह्य जगत् का नाश नहीं लेकिन अपने ही मन में रहे हुए राग-द्वेषात्मक संसार को जरूर समाप्त करना ही चाहिए । अतः भावनाओं का आश्रय लेने से आन्तर मन में काफी अच्छा परिवर्तन आता है। ऐसी १२. भावनाएं विशेष रूप से अनेक ग्रन्थों में दर्शायी है । “ अनित्या - शरणसंसारैकत्वान्यत्वाशुचित्वास्रव - निर्जरा-लोकबोधि- दुर्लभ - धर्मस्वाख्यातत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः” ८/७ । तत्त्वार्थ सूत्र में इन भावनाओं का अनुप्रेक्षा नामकरण करके इस तरह १२ बताई है । १) अनित्य भावना, २) अशरण भावना, ३) संसार भावना, ४) एकत्व भावना, ५) अन्यत्व भावना, ६) अशुचि भावना, ७) आस्रव भावना, ८) संवर भावना, ९ ) निर्जरा भावना, १०) लोकस्वभाव भावना, ११) बोधि दुर्लभ भावना, और १२) धर्मस्वाख्यातत्त्व
राग
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भावना ।
छद्मस्थ जीवों का चित्त निरंतर इतना ज्यादा स्थिर नहीं रह सकता है । इसलिए ध्यान की व्युत्थान दशा में सर्व पदार्थों की अनित्यता, संसार की अशरणता और विचित्रता, आत्म तत्त्व की एकता, पर द्रव्यों से अत्यन्त भिन्नता, शरीरादि पदार्थों की अपवित्रता - अशुचिता, आध्यात्मिक विकास यात्रा
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