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मुत्त
सिद्ध
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२
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बुद्ध
शुद्ध
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परिभ्रमण अनन्तकालिक है । अतः इसका क्या विचार किया जाय ? हाँ, जब जीव शुद्ध की भूमिका में प्रवेश करता है . तब सम्यग् दर्शन प्राप्त करकें विकास की सीढि के सोपान चढते चढते क्रमशः साधक आगे बढता है। इसमें भी शुद्ध से शुद्धतर, शुद्धतम, शुद्धातिशुद्ध भूमिका प्राप्त करता हुआ अग्रसर होता है । प्रथमं सम्यग् दर्शन प्राप्त करके जीव जितना शुद्ध हुआ था उससे भी आगे बढकर ५ वे, ६ ठे गुणस्थान पर व्रत - विरति को पाकर शुद्धतर हुआ । फिर अप्रमत्त भाव ७ वे गुणस्थान को पाकर शुद्धतम कक्षा पाता
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। फिर ८ वे गुणस्थान से अपूर्वकरण करता हुआ आगे चढकर शुद्ध - अत्यन्त शुद्ध - अतिशय शुद्ध-शुद्धातिशुद्ध बनता हुआ क्रमशः ८ - १०-१२ गुणस्थान पर आरूढ होता हुआ आगे बढता है । अन्तिम शुद्धता की कक्षा १२ वे गुणस्थान के अन्त में पाकर १३ वे गुणस्थान पर प्रवेश करते ही संपूर्ण वीतरागता प्राप्त कर लेता है । आत्मा पर भोहनीय कर्मजन्य राग-द्वेषादि के कारण ही पूरी अशुद्धि थी वह निकल जाती है और चेतनात्मा पूर्ण शुद्ध बन जाती है। इस तरह पूर्ण शुद्ध बनकर १३ वे गुणस्थान पर बुद्ध बन जाती है । बोध शब्द ज्ञानवाचक है । बुद्ध सर्वज्ञतासूचक है । आत्मा १३ वे गुणस्थान पर आरूढ होकर केवली सर्वज्ञ बन जाती है । वही कक्षा बुद्ध की है। इसलिए बुद्ध की पूर्णता १३ वे गुणस्थान पर प्राप्त होती है। बस, इसके बाद काययोगादि से मुक्त होगा । कर्म के बंधन से मुक्त होगा। जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होगा । १४ वे गुणस्थान पर आरूढ होकर संसार से सदा के लिए मुक्त होगा। ऐसा मुक्त जीव सिद्ध कहलाएगा। इसलिए सिद्धावस्था यह विकास की चरमकक्षा है । बस, विकास का भी अन्त सिद्ध बनने पर आ जाता है । अब मुक्त होकर सिद्ध बना हुआ सिद्ध जीव सिद्धशिला के ऊपर लोकाग्र भाग में स्थिर बन जाता है । अब कुछ भी वहाँ करना नहीं रहता है । मात्र स्वयं अपने जो गुण अनन्त स्वरूप में प्राप्त कर लिए हों उन अनन्तता में अनन्त काल तक मस्ती में रहना । इस तरह इन ४ शब्दों से भी विकास की प्रक्रिया अच्छी तरह समझी जा सकती है।
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ध्यान साधना से " आध्यात्मिक विकास"
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