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________________ आठों दृष्टियों का स्वरूप-व्याख्या, तथा अष्टांगयोग की भी व्याख्यादि का सुंदर स्वरूप आपने पढा, समझा, और अभ्यास अच्छी तरह किया हो तो जरूर से दोनों का तुलनात्मक अभ्यास करिए। फिर दोनों में समानता कितनी है इसका अच्छी तरह ख्याल आएगा। योगांगों में भी जैसे यम-नियम से क्रमशः क्रमिक विकास होता है ठीक उसी तरह मित्रा दृष्टिवाले जीव का प्रकाश आत्मबोध तृणाग्निरूप मात्र है । एक घास का तिनका जले उससे क्या प्रकाश फैलेगा? क्या बोध होगा? फिर भी अंशमात्र भी गिना है । ठीक उसी तरह महापापों में से बचाकर पहले ५ यम में लाया जाता है साधक को । दृष्टियाँ आत्मबोधक हैं । आत्मज्ञानरूप प्रभा का प्रकाश कितना प्रगट हुआ उसका बोध कराती है। इसलिए आठों दृष्टियों के भिन्न भिन्न प्रकाश की उपमा के लिए आठ दृष्टान्त दिये गए हैं । यह प्रकाश अपने द्रव्य-क्षेत्रादि का क्रमशः विस्तार करता है । अतः आठों में क्रमशः बोध-प्रकाश बढता जाता है । ठीक उसी तरह योगांगों में प्रथम-यम-नियम जो कि अभी कुछ भी योग प्रक्रिया सिखाते नहीं है परन्तु योग की योग्यता, पात्रता जरूर निर्माण करते हैं । आसन साधक को स्थिरता सिखाता है । बला दृष्टि में आते आते बाह्य स्थिरता शुरु होती है। और ४ थी दीपा में सम्यक् दर्शन पाने की पूर्वभूमिका बनने के पश्चात् ५ वी स्थिरा दृष्टि में जीव सम्यक् दर्शन प्राप्त करता है । इसी तरह यम से प्राणायाम तक के चारों योगांग देहप्रधानता बाह्य लक्षवाले थे। अब प्रत्याहार में आने के बाद वैराग्य–विरागता-विषयविमुखता बढी । तब जाकर मन शुद्ध एवं स्थिर होने लगा। कलुषितता कम होने लगी। चित्त शुद्धि के साथ साधक ध्यानयोग्यता प्राप्त करने लगा। दीपक की लौ स्थिर होने लगी। दीपक की प्रभा से अब प्रकाश स्थिर होने लगा । इसलिए स्थिरा दृष्टि में आकर रत्नप्रभा का प्रकाश बन गया। रत्न की प्रभा का प्रकाश दीपक की अपेक्षा हजार गुना ज्यादा स्थिर हो जाता है । बस, स्थिरता चित्त को और आगे बढाती है। एक तरफ चित्त शुद्ध भी बन गया हो, दूसरी तरफ स्थिर भी बन गया... बस, फिर क्या चाहिए? आगे धारणा में प्रवेश किया और कांता दृष्टि का ताराओं के जैसा प्रकाश बढा । यहाँ तक ध्यान की पूर्व तैयारियाँ थी। अब साधक-ध्याता की योग्यता-पात्रता निर्माण हो चुकी है । इसके पश्चात् साधक ७ वे ध्यान के योगांग में प्रवेश कर लेता है। वहाँ ध्येय को ध्यानाकार बनाता है। और एकाग्रता क्रमशः बढते बढते आगे के सोपान में ध्याता ही ध्येयाकारता अनुभव करता है । ध्येयरूप बने हुए ध्याता में प्रभा दृष्टि में सूर्यप्रकाशवत् प्रकाश फैलता है । और अन्त में ध्याता, ध्येय और ध्यान तीनों की एकाग्रता बढने पर... एकात्मता अभेदावस्था आने पर अन्त में आठवाँ योगांग-समाधि प्राप्त १०७८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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