SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 120
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ होती है । अन्तिम आठवीं परा दृष्टि का चन्द्रवत्, सौम्य - शीतल - शान्त प्रकाश फैलता है। साधक चरम कक्षा में पहुँचता है और आत्मविकास की पूर्णता को प्राप्त करता है । अन्त में शुद्ध - बुद्ध-मुक्त सिद्ध बनता है । अष्टांगयोग में गुणस्थान विकास मिश्र सास्वादन मिथ्यात्व देशविरत अविरत प्रमत्तसंयत मित्रा, तारा, बला, दिप्रा अप्रमत्त. अपूर्वकरण अनिवृत्ति सूक्ष्म सप क्षीण मोह उपशांत मोहे स्थिरा, कांता, प्रभा, परां सयोगी केवली आठ दृष्टियों का ८ अष्टांग योगांगों के साथ १४ गुणस्थानों के विकास का क्रमशः वचार करना चाहिए । गुणस्थानों का पूरा आधार इन आठ दृष्टियों के विकास पर अवलंबित है । तथा अष्टांग योग पर भी अवलंबित है । गुणस्थान रेलगाडी - ट्रेन के स्थान पर आधारभूत है । आत्मविकास की मापक ये ८ दृष्टियाँ हैं, इसी तरह अष्टांग योग भी क्रमिक आध्यात्मिक विकास के द्योतक हैं । मित्रा प्रथम दृष्टि मिथ्यात्व गुणस्थान की सूचक है । मिथ्यात्वी जीव की जो अज्ञानता, विपरीत विकृत ज्ञानदशा जैसी होती है वही - वैसी मित्रा दृष्टिवाले जीव का तृणाग्नि बोध मात्र होता है । मिथ्यात्व क्रमशः मन्दतम हौता ही जाय और धीरे धीरे एक-एक दृष्टि खुलती ही जाय उस हिसाब से आत्मा का ज्ञान प्रकाश भी बढता ही जाएगा। इसलिए मिथ्यात्व, सा० और मि० तीनों गुणस्थान प्रथम की ३, ४ दृष्टि तक स्थित रहेंगे। स्थिरा दृष्टि से ४ ध्यान साधना से " आध्यात्मिक विकास" १०७९
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy