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________________ भी तदाकार स्थिति हो जाती है । इस स्थिति में अभेदता आ जाती है । ध्याता-ध्येय दोनों एक रूप ही हो जाते हैं फिर ग्रहण करनेलायक और ग्रहण न करने लायक ऐसा कोई भेद ही नहीं रहता है । एकरसता एकाग्रता छा जाती है । अब पूर्ण-शुद्ध स्वरूप ऐसी अपनी आत्मा के सिवाय अब अन्य किसी का भी स्मरण रहता ही नहीं है, कोई आलंबन ही शेष बचता नहीं है । ऐसा आलंबनरहित निरालंबन बना हुआ योगी सिद्ध स्वरूप में इस तरह लीन होता है कि जिससे अभेद कक्षा प्राप्त होती है । ध्याता और ध्येय में कोई भेद रहता ही नहीं है । एकीकरण भाव-एकरसता, एकलीनता आ जाती है । अंब ध्याता ही ध्येयरूप बन चुका है। इसमें ध्येय ऊँचा रूपातीत की कक्षा का है। अतः ध्यान की सर्वोच्चता श्रेष्ठता के आधार पर ध्याता की भी सर्वोच्चतम कक्षा प्राप्त करने की भूमिका बन गई। इसलिए रूपातीत की कक्षा का ध्यान ही सर्वोत्तम, सर्वश्रेष्ठ है। .. यः परात्मा परं सोऽहं, योऽहं स परमेश्वरः। . मदन्यो न मयोपास्य मदन्येन च नाप्यहम्॥ ध्यान दीपिकाकार कहते हैं कि इतनी ऊँची कक्षा का अभेद भाव, एकरसीभाव, तन्मयभाव, लीनभाव आ चुका है कि जो परमात्मा है वही मैं हूँ, और जो मैं हूँ वही परमात्मा है, मेरे द्वारा जिसकी उपासना की जा रही है वह उपास्य ध्येय तत्त्व और उपासना करनेवाला मैं उपासक दोनों भिन्न नहीं हैं, हमारे में भेद नहीं है। दोनों एकरूप ही है, अतः उपास्य-उपासक ध्याता-ध्येय का कोई भेद ही नहीं रहता है । सच देखा जाय तो ध्यान की पराकाष्ठा यही है कि दोनों एकरूप हो जाय । अभेद कक्षा आ जाय। . अध्यात्म की प्रथम कक्षा में पहले देह और आत्मा में भेदज्ञान करता रहता है और अन्त में जाकर आत्मा + आत्मा = परमात्मा की आत्मा और अपनी स्वयं की आत्मा में अभेद करना है। यह ध्याता का कार्य ध्यान में कर्तव्य है। लेकिन कर्मोदयवश हम विपरीत ही कर बैठे हैं । अपने देह और देह संबंधि संसारभाव के साथ अभेद कर बैठे हैं तथा अपनी ही आत्मा के समान जो परमात्मा है, अपनी और परमात्मा की दोनों की जाति समान है, मैं-मेरी आत्मा परमात्मा के जैसी ही है और परमात्मा की जाती मेरी आत्मा के जैसी ही है । द्रव्य रूप से देखने पर दोनों में अभेदभाव-समानरूप ही है । भिन्नता मात्र पर्यायरूप से है । परमात्मा की आत्मा अरिहंत पर्यायरूप है, या सिद्ध पर्यायरूप है । जबकि मेरी वर्तमान पर्याय..संसारी रूप है । अरिहंत ४ कर्मयुक्त है । मैं अभी भी आठों कर्मयुक्त हूँ। सिद्ध सर्वथा अकर्मी है, मैं सकर्मी हूँ, सिद्ध अशरीरी है, मैं सशरीरी हूँ। अरिहंत २०६८ आध्यात्मिक विकास यात्रा
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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