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सशरीरी है, मैं भी सशरीरी हूँ । इस तरह भेदाभेदपना किस तरह कैसा है यह ध्याता - ध्यान की कक्षा में स्पष्ट कर लेता है। भेद और अभेद दोनों भिन्न-भिन्न होने पर भी एकसाथ रहते हैं । द्रव्य रूप से हम दोनों समान आत्मरूपी है । मेरी भी आत्मा एक अखण्ड - असंख्यप्रदेशी द्रव्य है । इसी तरह परमात्मा भी एक अखण्ड असंख्य प्रदेशी द्रव्य है। दोनों ही समानरूप से अनादि - अनन्त हैं । अविनाशी - त्रैकालिक शाश्वत धर्म दोनों का समानरूप है । ज्ञानादि गुण भी दोनों के समानरूप हैं। अरिहंत - सिद्ध परमात्मा
ज्ञानादिगुण निरावरण अवस्था में संपूर्ण शुद्ध स्वरूप में प्रकट हैं। जबकि वे ही और वैसे ही ज्ञानादि आत्म गुण मेरे में भी है। भिन्नता सिर्फ इतनी ही है कि वे कर्मावरण से आच्छन्न - ढके हुए- - दबे हुए हैं परन्तु सत्ता में है सही। इसमें कोई संदेह नहीं है । अब परमात्म स्वरूप का शुद्ध रूप, पूर्ण रूप ज्ञान एवं ध्यान दोनों से देखकर, जानकर, समझकर मैं मेरे अपूर्ण - अधूरे स्वरूप को उनके समकक्ष पूर्ण रूप प्रगट करने के लिए, ध्यानधर्म की उपासना कर रहा हूँ । अब मेरा आत्म धर्म यही है कि मैं मेरे कर्मावरणों का सर्वथा समूल क्षय करूँ, नष्ट करूँ और अपनी आत्मा के ज्ञानादि सभी गुणों की पूर्णता की कक्षा को प्राप्त कर लूँ । द्रव्यत्व जाति से आत्मा के रूप में तो समानता परमात्मा के साथ है ही, और गुणरूप में भी मैं परमात्मा के समकक्ष हो जाऊँ । बस, फिर तो ... मैं पर्याय से ही भिन्न हूँ । सिद्ध की पर्याय त्रिकाल स्थिर पर्याय है जबकि एक संसारस्थ होने के नाते मेरी पर्याय अस्थिर-अस्थायी है। बस, मैं भी एक दिन सिद्ध बन जाऊँ ताकि सदा के लिए संसार की, इस शरीर की जेल से, कर्मों के बंधन से मुक्त होकर शाश्वत - - मुक्तिधाम में सदा के लिए स्थिरात्मपर्याय में स्थित हो जाऊँ । बस, फिर तो अनन्तकाल तक स्थिरता ही स्थिरता पूरी बनी रहेगी । अब संपूर्ण अशरीरी, अकाल - अकर्मी स्थिति सदा काल बनी 'रहेगी। जो अविनाशी है, अपरिवर्तनशील है ।
बस, इसीलिए तो मैं ध्यान कर रहा हूँ। ध्यान ही एक ऐसी सर्वोच्च एवं चरम कक्षा की साधना है जिसमें मैं परमात्मा को ध्येय बनाकर एकरूप - एकरस बन सकता हूँ । परमात्मा की पूर्णता सर्वज्ञता को देखते हुए मैं मेरी अपूर्णता और अल्पज्ञता को बदलकर, प्रभु के जैसा पूर्णरूप - सर्वज्ञ बन सकूँगा । ध्येयाकारता प्राप्त करानेवाली प्रक्रिया ध्यान है । अतः ध्याता - ध्येय और ध्यान तीनों एकरूप हो जाय, बस, अब अभेद रहने ही न पाए ऐसी यह ऊँची साधना है । इसीलिए कहते हैं
सोऽयं समरसीभावस्तदेंकीकरणं मतम् । आत्मा यदपृथक्त्वेन लीयते परमात्मनि । १०/४ ॥
ध्यान साधना से " आध्यात्मिक विकास"
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