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________________ अमूर्तस्य चिदानन्दरूपस्य परमात्मनः । निरञ्जनस्य सिद्धस्य ध्यानं स्यात् रूपवर्जितम् ।। १०/१।। मूर्त-आकार-प्रकार रहित चिदानन्दघन स्वरूप ऐसे परमात्मा का निरंजन-निराकार रूप सिद्धस्वरूप में ध्यान करना रूपातीत ध्यान कहते हैं। इस तरह नवकार महामंत्र में जो २ स्वरूप परमात्मा के दर्शाए गए हैं उनमें प्रथम अरिहंत है। अरिहंत परमात्मा देहधारी अपने शरीर विशेष को धारण करते हुए, आकार-प्रकारवाले, १३ वे गुणस्थान पर स्थित केवलज्ञान-वीतरागतादि गुणों के धारक तीर्थंकर प्रभु समवसरण में बिराजमान होकर देशना फरमाते हुए परमात्मा का ध्यान करना है ऐसा ध्यान रूपस्थ ध्यान कहलाएगा। नवकार के दूसरे पद में सिद्ध का स्वरूप है। अरिहंत ही देह छोडकर-मृत्यु के पश्चात् सिद्ध बन जाते हैं। अरिहंत के सिवाय अन्य-आचार्य-उपाध्याय एवं साधु परमेष्ठि जो भी सिद्ध बनते हैं वे भी सभी सिद्ध कहलाते हैं । सिद्ध बनते ही जीव शरीर को सदा के लिए छोड़ देता है। और इस संसार से सदा के लिए मुक्त होकर लोकाग्र भाग पर स्थित हो जाता है । वहाँ शरीर रहित अवस्था में सर्वथा सर्वकर्मरहित शुद्ध आत्मा ही रहती है । आत्मा का कोई आकार-प्रकार कुछ भी नहीं रहता है । रूप-रंग-कुछ भी नहीं रहता है । इसलिए सिद्ध रूपातीत-अरूपी कहलाते हैं । अतः ऐसे ध्येय का ध्यान भी रूपातीत की कक्षा का कहलाता है। इत्यजस्रं स्मरन् योगी तत्स्वरूपावलम्बनः । तन्मयत्वमवाप्नोति ग्राह्यग्राहकवर्जितम् ।। १०/२।। अनन्यशरणीभूय स तस्मिन् लीयते तथा। ध्यातृध्यानोभयाभावे ध्येयेनैक्यं यथा व्रजेत् ।। १०/३।। योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्यजी म. फरमाते हैं कि... सिद्धस्वरूप का आलंबन लेकर इस तरह सतत निरंतर सिद्धों का स्मरण करनेवाला-ध्यान करनेवाला ध्याता योगी ग्राह्य-ग्राहकभावरहित तन्मयता को प्राप्त करता है । अर्थात् सिद्ध स्वरूप में अपनी आत्मा को लीन-मग्नं करते हुए, अर्थात् अपनी आत्मा में सिद्धस्वरूप अनुभव करते हुए अपनी ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास" १०६७
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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