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________________ वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन् । रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात्क्षोभणादिकृत् ॥ ८/१६ ॥ वीतराग का चिन्तन करते हुए- ध्यान करते-करते वीतराग बनकर कर्म एवं संसार से मुक्त हो सकते हैं । और यदि आपने सरागियों का ही आलंबन लिया तो ध्याता को कामादि उत्पन्न करनेवाला सरागीपना ही प्राप्त होता है । इस रूपस्थ ध्यान में समवसरण का आलंबन लेकर ध्यान किया जाता है । प्रथम रजत का गढ़, दूसरा सुवर्ण का गढ़, तीसरा रत्न- मणियों का बना हुआ गढ, उसके केन्द्र में चारों तरफ स्फटिकमय सिंहासन में पूर्वदिशा के मुख्य सिंहासन पर मूल रूप से बिराजमान प्रभुजी, शेष ३ दिशा में प्रतिकृति, ऊपर ३ छत्र, बाजु में चामरादि भामण्डलादि सभी प्रातिहार्य, ऊपर सुंदर - विशाल अशोकवृक्ष, चारों तरफ प्रवेशद्वारादि अद्भुत स्वरूपवाले ३ प्राकारवाले समवसरण के ऊपर बिराजमान तीर्थंकर रूप में स्थित सर्वज्ञ वीतरागी प्रभु जगत् के जीवों के हितार्थ केवलज्ञान से देशना फरमा रहे हैं। ऐसे स्वरूप में परमात्मा को देखें । इस प्रकार के ध्यान को रूपस्थ ध्यान कहते हैं । रूपस्थ ध्यान स्वगत, और परगत दोनों प्रकार का होता है । तत्त्वतः स्वयं ध्याता अपनी आत्मा को ही उस परमात्म स्वरूप में देखें और परगत ध्यान में परमात्मा को देखें । इस तरह दोनों प्रकार का रूपस्थ ध्यान होता है । ४) रूपातीत ध्यान क्रमशः ध्यान की कक्षा में ऊपर ही ऊपर चढते हुए ... आगे बढ़ते - चढते हुए पिंडस्थ से पदस्थ ध्यान में, पदस्थ से रूपस्थ की कक्षा में आगमन होता है और अन्त में रूपातीत की कक्षा में पहुँचकर सिद्ध - बुद्ध - मुक्त - निरंजन - निराकार ऐसी सिद्धावस्था का ध्यान करना है । रूप + अतीत रूपातीत । रूपस्थ ध्यान में जैसा कि ... तीर्थंकर रूप में परमात्मा का चिन्तन था उसके अभ्यास के बाद एक कदम और आगे बढकर अब रूपातीत, रूपरहित सिद्ध भगवन्तों का ध्यान इस प्रकार में किया जाता है । ध्येय के अनुरूप यह ध्यान होने से ध्येय का जैसा रूपरहित - रूपातीत विषय है उसके अनुरूप ध्याता ध्यान करते हुए परमात्म तत्त्व को रूपरहित रूपातीत अवस्था में निरंजन - निराकार सिद्धस्वरूप में देखे । शरीररहित किसी भी आकार-प्रकार से रहित अशरीरी - अरूपी मात्र शुद्ध आत्मतत्त्व को ध्यान में देखे । योगशास्त्र में हेमचन्द्राचार्यजी म. कहते हैं— आध्यात्मिक विकास यात्रा १०६६ =
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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