________________
लेकर ध्यान करना इसे रूपस्थ ध्यान कहते हैं । स्था-तिष्ठ धातु रहने अर्थ में है । किसमें ? रूपस्थ में प्रयुक्त परमात्मा के रूपी स्वरूप में स्थिर रहना है । परमात्मा जो केवलज्ञान प्राप्त करके वीतराग बन चुके हैं । तथा पूर्वोपार्जित तीर्थंकर नामकर्म के उदय से तीर्थंकर की शोभा जो प्राप्त हुई है उसके ध्यान में स्थिर रहना ही रूपस्थ ध्यान है पिंडस्थ और पदस्थ दोनों ध्यानों से एक कदम और आगे बढा हआ ध्याता इस रूपस्थ ध्यान में
जिनेन्द्रप्रतिमारूपमपि निर्मलमानसः ।
निर्निमेषद्दशा ध्यायन् रूपस्थध्यानवान् भवेत् ।। ९/१० ॥ तीन लोक के नाथ त्रिभुवनपति तीर्थंकर जिनेश्वर परमात्मा की प्रतिमा के रूप को . भी निर्मल मनवाला, निर्मल पवित्र मन में मानस पटल पर... अनिमेष दृष्टि से ध्यान करता ही रहे यह रूपस्थ ध्यान कहलाता है । साधक रूपस्थ ध्यानी कहलाएगा।
देखिए नियम ऐसा है कि... आप जिसका निरंतर ध्यान करोगे... ध्याता... कालान्तर में वैसा बनता भी है । मन चिन्तित आकार में परिणत होकर वैसा बनता है। अतः साधक को अशुभ ध्यान कभी भी नहीं करना चाहिए । हेमचन्द्राचार्यजी म. स्पष्ट कहते हैं कि
- नासद्ध्यानानि सेव्यानि कौतुकेनापि किन्त्विह।
स्वनाशायैव जायन्ते सेव्यमानानि तानि यत् ।। ९/१५ ।। कौतुकवश भी कभी असद् (अशुभ) ध्यान का आचरण करना ही नहीं चाहिए। ऐसा करने से अपने नाश के लिए ही होता है । अतः सद् (शुभ), शुद्ध ध्यान का ही अभ्यास करके साधक को आगे बढना चाहिए।
योगी चाभ्यासयोगेन तन्मयत्वमुपागतः । सर्वज्ञीभूतमात्मानमवलोकयति स्फुटम् ॥९/११ ।।
सर्वज्ञो भगवान् योऽयमहमेवास्मि स ध्रुवम्। ... एवं तन्मयतां यातः सर्ववेदीति मन्यते ।। ९/१२ ।। - ऐसे रूपस्थ ध्यान के आलंबन की सहायता से ध्यान का अभ्यास करनेवाला ध्याता तन्मयता को प्राप्त होकर स्वयं अपनी आत्मा को सर्वज्ञता को प्राप्त हुआ प्रत्यक्षरूप से देखे । तन्मयता कैसी लानी? इसके लिए कहते हैं कि...जो ये सर्वज्ञ भगवान हैं, वही मैं हूँ, निश्चयरूप से मैं ही हूँ। ऐसी तन्मयता को प्राप्त योगी अपने आप को सर्वज्ञ स्वरूप माने । यह रूपस्थ ध्यान में होता है।
ध्यान साधना से "आध्यात्मिक विकास"
१०६५