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________________ २४ जिन का ध्यान करें। इस तरह पदस्थ ध्यान में भिन्न-भिन्न रूप से पदों का आलंबन लेकर ध्यान करता जाय । अनेक प्रकार के ऐसे पद आदि दर्शाए गए हैं। अष्टदल कमल या चतुर्दल कमल आदि अनेक प्रकार की आकृतियों की रचना करके उनमें स्थापना करके भी ध्यान किया जाता है। इसमें आसन प्राणायाम आदि की प्रक्रिया का आधार विशेषोपयोगी सिद्ध होता है। पूरक-कुंभक रेचक पूर्वक के प्राणायाम पूर्वक की साधना करने से... मन की एकाग्रता शीघ्र ही बढाई जा सकती है । मातृका वर्णों का भी ध्यान पदस्थ ध्यान है। आगमोक्त जिन वचनों-जिनाज्ञा रूप पदों का आलंबन लेकर भी पदस्थ ध्यान किया जा सकता है । जैसे “अप्पा सो परमप्पा" आत्मा ही परमात्मा है । इस पद के आधार पर अपनी स्वयं की आत्मा को परमात्मवत् ध्यान में लाए । “सोऽहं" पद से 'सो' (सः) पद से जो अरिहंत या सिद्ध भगवंत वाच्य हैं, बस, “अहं" मैं भी उनके जैसा ही हूँ, या मैं उसी स्वरूप में वही हँ ऐसा ध्यान करके भी आत्मा को उस रूप में ऐसा पदस्थ ध्यान रूपातीत ध्यान की तरफ अग्रसर करता है। फिर भी पद की-आगमना, पद की प्रधानता होने से पद ध्यान पदस्थ-ध्यान कहा जाता है। STUT ३) रूपस्थ ध्यान सर्वातिशय-युक्तस्य केवलज्ञानभास्वतः । अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं रूपस्थमुच्यते ।। ९/७ ।। रागद्वेषमहामोहविकारैरकलंकितम्। शान्तं कान्तं मनोहारिं सर्वलक्षणलक्षितम् ।। ९/८॥ योगशास्त्र के नवम प्रकाश में रूपस्थ ध्यान का स्वरूप बताते हैं कि... सर्व अतिशयों से युक्त केवलज्ञान के सूर्यस्वरूप राग-द्वेषरूप महामोह के विकारों से रहित-अकलंकित शान्त, शोभनीय, मनोहारी इत्यादि सर्व लक्षणों से सुशोभित अरिहंत के रूप का आलंबन आध्यात्मिक विकास यात्रा १०६४
SR No.002484
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2010
Total Pages534
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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