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________________ संबंध बना हुआ है । दोनों साथ ही रहते हैं । एक दूसरे के पूरक-परस्पर सहयोगी हैं। यद्यपि शेष १२ कषायों का भी अस्तित्व है । अनन्तानुबंधी आदि की काल के आधार पर व्यवस्था है। १) अनन्तानुबंधी-आजीवन-जन्मभर रहता है। २) अप्रत्याख्यानीय ४ कषाय-१ वर्ष की काल अवधिवाला है । ३) प्रत्याख्यानीय ४ कषाय ४-४ माह की काल अवधि तक रहनेवाला है। जबकि संज्वलन की उत्कृष्ट काल मर्यादा १५ दिन की ही है। जैसे ही मिथ्यात्व के १ ले गुणस्थान से ग्रंथिभेद कर कोई जीव सीधे ४ थे सम्यक्त्व के गुणस्थान पर पहुँचता है वहाँ ४ अनन्तानुबंधी कषाय क्षीण हो गए। अब अप्रत्याख्यानीयादि १२ कषायों की स्थिति ४ थे गुणस्थान पर रहती है । फिर आगे विकास साधता हुआ जीव जब ५ वे गुणस्थान देशविरति पर आरूढ होता है तब व्रत-विरति-पच्चक्खाण आ जाते हैं । अब अप्रत्याख्यानीय४ कषाय भी गए । इस तरह ५ वे गुणस्थान पर आते ही अनन्तानुबंधी ४ + अप्रत्याख्यानीय ४ = ८ कषायों का • विलय होगा। अब शेष ८ और बचे हैं। . विकास की दिशा में अग्रसर साधक अब आगे ६ढे गुणस्थान के सोपान पर चढकर जब साधु बनता है तब प्रत्याख्यानीय ४ कषायों का भी विलय हो जाता है । इस तरह अनन्तानुबंधी ४, + अप्रत्याख्यानीय४+ प्रत्याख्यानीय ४ = १२ कषायों का अभाव हो गयां । अब मात्र संज्वलन के ४ ही कषाय शेष बचे हैं। वैसे संज्वलन की जाति के ४ कषायों की स्थिति ६, ७, ८, ९ और १० वे इन ५ गुणस्थानों पर रहती है। इन पर भी क्रमशःमात्रा का जोर कम कम होता ही जाता है लेकिन कषाय थोडा भी हो तो भी आखिर है तो कषाय की ही जाति का है । अतः बंधहेतु होने के नाते कर्म तो बंधाएगा ही बंधाएगा। बस, मोहनीय कर्म की स्थिति १० वे गुणस्थान तक ही है । आगे नहीं है। आगे ११ वाँ गुणस्थान जो कि उपशमश्रेणीवाले का है। वहाँ अब नए कषाय की प्रवृत्ति नहीं है। क्योंकि बंधहेतु नहीं है । परन्तु पूर्व बंधे हुए कषायों के उदय की संभावना पूरी है । क्योंकि क्षय का कार्य नहीं किया है-उपशमन का काम किया है । अतः राख के नीचे दबे प्रदीप्त अग्निमय कोयलों की तरह क्रोधादि कषायों की सत्ता पडी है । अतः कभी भी कषाय पुनः प्रदीप्त हो सकते हैं । इसलिए पुनः पतन होगा। आगे के १२, १३ गुणस्थान बिल्कुल कषाय की सत्ता से रहित हैं। वहाँ न तो क्रोधादि कषायों का बंधहेतु है और न ही कषायजनित कोई प्रवृत्ति । कुछ भी नहीं है। अप्रमत्तभावपूर्वक "ध्यानसाधना" ९५३
SR No.002483
Book TitleAadhyatmik Vikas Yatra Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorArunvijay
PublisherVasupujyaswami Jain SMP Sangh
Publication Year2007
Total Pages570
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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