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कर्म कहलाता है । यदि हेतु शब्द निकाल दिया जाय तो मात्र "जीव द्वारा जो क्रिया की जाती है उसे कर्म कहते हैं" तो निश्चित रूप से सभी क्रियाओं को ही कर्म कहना पडेगा । लेकिन वैसा होता नहीं है । शायद क्रिया भिन्न प्रकार की हो और हेतु बिल्कुल अलग ही प्रकार का हो सकता है । तथा क्रिया की समानता एक जैसी अनेक, जीवों के बीच देखी जा सकती है लेकिन बंधहेतुओं में भिन्नता रहेगी । इसीके आधार पर कर्मों का बंध भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होगा । और स्थितिबंधादि भी भिन्न-भिन्न प्रकार का होगा । विषय की विचारणा भी पहले काफी कर आए हैं । अतः विशद स्वरूप वहाँ से स्पष्ट समझ में आ सकेगा । (कृपया पीछे पुनः पढकर पक्का करने का रखें ।)
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गुणस्थानों के नामों पर बंधहेतुओं की छाप
अब इसी तरह १४ गुणस्थानों के जो १४ नाम दिये गए हैं उनके नामों को तथा कहाँ तक उन नामों की स्थिति रहती है और बदलती है यह देखेंगे। पहले गुणस्थान पर, ४ थे पर, ६ ट्ठे पर, १० वे गुणस्थान पर, तथा १३ वे गुणस्थान पर, इस तरह क्रमशः इन ५ गुणस्थानों पर पाँचों बंधहेतुओं के पाँचों नामों का निर्देश स्पष्ट ख्याल आता है । उनके नामों के साथ बंधे हेतुओं की छाप नामों को स्पष्ट देखने से ख्याल आ जाएगा
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१) पहले गुणस्थान मिथ्यात्व पर – “ मिथ्यात्व ” १ ला बंधहेतु । . “ अविरति” २ रा बंधहेतु
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. “प्रमाद” ३ रा बंधहेतु
२) ४ थे अविरत सम्यक्दृष्टि गुणस्थान पर - ३) ६ ट्ठे प्रमत्त संयत गुणस्थान पर ४) १० वे सूक्ष्म संपराय गुणस्थान तक “संपराय = कषाय” ४ था बंधहेतु ५) १३ वे सयोगी केवली गुणस्थान तक – “योग” ५ वाँ बंधहेतु ।
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इस प्रकार १, २, ६, १० और १३ वे इन ५ गुणस्थानों का नामकरण ही ५ बंधहेतुओं के आधार पर ही किया गया है। तथा वहाँ नामनिर्देश करके वहाँ तक उस उस बंधहेतु की स्थिति प्रधान रूप से निर्देश की है। और उससे आगे बढने के बाद उस बंध हेतु की स्थिति कुछ भी नहीं रहती । उसका अभाव रहता है यह भी निर्देश स्पष्ट होता है ।
इसे स्पष्ट समझने के लिए गुणस्थानों के नामों के साथ उस बंधहेतु की स्थिति प्रवृत्ति - प्रकृति आदि देखने से विशेष ख्याल आ जाएगा। इससे यह स्पष्ट हो जाएगा कि कौन सा जीव किस गुणस्थान पर खडा है । और वहाँ कितने कर्म, कितनी कर्मप्रकृतियाँ किस हेतुपूर्वक बांध रहा है । और कहाँ तक बाँधता ही रहेगा। यह नीचे की निम्न तालिका १४ सोपानों को क्रमशः देखने से ख्याल आएगा ।
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आध्यात्मिक विकास यात्रा